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________________ अमितगतिविरंचिता धर्मो ऽस्ति क्षान्तितः कोपं मानं मार्दवतो ऽस्थतः। मायामार्जवतो लोभं क्षिप्रं संतोषतः परः ॥७५ निर्मलं दधतः शीलं धर्मो ऽस्ति जिनमर्चतः। पात्रेभ्यो ददतो दानं सदा पर्वण्यनाश्नुषः ॥७६ देहिनो रक्षतो धर्मो वदतः सूनृतं वचः। स्तेयं वर्जयतो रामां राक्षसीमिव मुञ्चतः ॥७७ धीरस्य त्यजतो ग्रन्थं संतोषामृतपायिनः। वत्सलस्य विनीतस्य धर्मो भवति पावनः ॥७८ यो भावयति भावेन जिनानामिति भाषितम् । विध्यापयति संसारवज्रर्वाह्न सुदुःखदम् ॥७९ योगिनो वचसा तेन प्रीणिता निखिला सभा। पर्जन्यस्येवे तोयेन मेदिनी तापनोदिता ॥८० ७५) १. त्यजतात् [त्यजतः ] । ७६) १. धरतः । २. क उपवासं कुर्वतः । ७७) १. जीवानां दय तः । ८०) १. क मेघस्य । __ जो जीव क्षमाके आश्रयसे क्रोधको, मृदुताके आश्रयसे मानको, ऋजुता ( सरलता) के आश्रयसे मायाको तथा सन्तोषके आश्रयसे लोभको भी शीघ्र फेंक देता है-नष्ट कर देता है-उसके धर्म रहता है ॥७५॥ जो भव्य जीव सदा निर्मल शीलको धारण करता है, जिन भगवानकी पूजा करता है, पात्रोंके लिए दान देता है, तथा पर्व (अष्टमी आदि) में उपवास करता है; उसके धर्म होता है ( वह धर्मात्मा है ) ॥७६॥ जो प्राणी अन्य प्राणियोंकी रक्षा करता है, सत्य वचन बोलता है, चोरीका परित्याग करता है, स्त्रीको राक्षसीके समान छोड़ देता है, तथा परिग्रहका त्याग करके सन्तोषरूप अमृतका पान करता है; उसी धीर प्राणीके पवित्र धर्म होता है । ऐसा प्राणी नम्रीभूत होकर धर्मात्मा जनोंसे अतिशय अनुराग करनेवाला होता है ।।७७-७८।। जो भव्य जीव यथार्थमें जिनदेवके भाषित (जिनागम ) का विचार करता है वह अतिशय कठिनाईसे शान्त होनेवाली संसाररूप वज्र-अग्निको बुझाता है ।:७९॥ ___ उन जिनमति मुनिराजके इस कथनसे (धर्मोपदेशसे ) सारी सभा इस प्रकारसे प्रसन्न हुई जिस प्रकार कि तापको नष्ट करनेवाले मेघके जलसे पृथिवी प्रसन्न हो जाती है ।।८०॥ ७८) अ पायतः, इ पानतः । ७९) अ ब सुदुःशमम् । ७५) क ड इ परम् । ७७) अ क रक्षितो। ८०) इ सकला सभा, अब इ तापनोदिना ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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