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________________ धर्मपरीक्षा-२ नायान्ति प्रार्थिताः क्वापि ये यान्त्यप्रेषिताः स्वयम् । आत्मीयास्ते कथं सन्ति धनबन्धुगृहादयः ॥७० संसारे यत्र विश्वासस्ततः संपद्यते भयम् । अविश्वासः सदा यत्र तत्र सौख्यमनुत्तरम् ॥७१ आत्मकार्यमपाकृत्य देहकार्येषु ये रताः। परकर्मकराः सन्ति परे तेभ्यो न निन्दिताः ॥७२ अनेकभवसौख्यानि पावनानि हरन्ति ये। तस्करेम्यो विशिष्यन्ते न कथं ते सुतादयः ।।७३ अनात्मनोनमालोच्य सर्व सांसारिक सुखम् । आत्मनीनः सदा कार्यो बुधैर्धर्मो जिनोदितः ॥७४ ७०) १. क वाञ्छिताः । २. धनबन्धुगृहादयः । ३. क अप्रेरिताः । ७२) १. क परित्यज्य। ७४) १. आत्मनो ऽहितम् । जो धन, बन्धु और घर आदि प्रार्थना करनेपर कहींपर आते नहीं हैं और भेजनेके बिना स्वयं ही चले जाते हैं वे धनादि भला अपने कैसे हो सकते हैं ? अभिप्राय यह है कि जो धन आदि बाह्य पदार्थ हैं उनका संयोग और वियोग अपनी इच्छानुसार कभी भी नहीं है-वे प्राणीके कर्मानुसार स्वयं ही आते और जाते रहते हैं। इसीलिए उनके संग्रहमें प्रवृत्त होकर पापकार्य करना योग्य नहीं है ।।७०।।। संसारमें जिन बाह्य पदार्थों के विषयमें विश्वास है उनसे भय उत्पन्न होता है-वे वास्तवमें दुख ही देनेवाले हैं और जिन सम्यग्दर्शनादि या तपश्चरणादिमें प्राणीका कभी विश्वास नहीं रहता है उनसे अनुपम सुख प्राप्त होता है ।।७१॥ - जो प्राणी आत्मकार्यको छोड़कर शरीरके कार्यों में संलग्न रहते हैं वे परके ही गुलाम रहते हैं, उनसे निकृष्ट और दूसरे नहीं हैं ॥७२॥ . . जो पुत्र-मित्रादि अनेक भवोंके पवित्र सुखोंका अपहरण किया करते हैं वे भला चोरोंसे विशिष्ट कैसे न होंगे? उन्हें लोकप्रसिद्ध चोरोंसे भी विशिष्ट चोर समझना चाहियेकारण कि चोर तो धन आदिका अपहरण करके एक ही भवके सुखको नष्ट करते हैं, परन्तु ये विशिष्ट चोर अपने निमित्तसे प्राणीको पापाचरणमें प्रवृत्त करके उसके अनेक भवोंके सुखको नष्ट किया करते हैं ॥७३॥ जितना कुछ भी सांसारिक सुख है वह सब आत्माके लिए हितकारक नहीं हैउसे नरकादिके कष्टमें डालनेवाला है, ऐसा विचार करके विवेकी जनोंको निरन्तर जिनेन्द्रके द्वारा उपदिष्ट धर्मका आचरण करना चाहिए, क्योंकि आत्माके लिए हितकारक वही है ।।७४॥ ७०) अ यान्ति फ्रें। ७१) ड इ विश्वासस्तत्र; ब स्वयं for भयम्; अ ब क ततः सौख्यं । ७२) इ परं तेभ्यो । ७४) क अनात्मनीयमालोक्य ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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