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अमितगतिविरचिता धर्मः कामार्थमोक्षाणां काङ्क्षितानां वितारकः'। अधर्मो नाशकस्तेषां सर्वानर्थमहाखनिः ॥४१ प्रशस्तं धर्मतः सर्वमप्रशस्तमधर्मतः। विख्यातमिति सर्वत्र बालिशैरेपि बुध्यते ॥४२ प्रत्यक्षमिति विज्ञाय धर्माधर्मफलं बुधाः । अधर्म सर्वथा मुक्त्वा धर्म कुर्वन्ति सर्वदा ॥४३ नीचा एकभवस्यार्थे ' किंचित्तत्कर्म कुर्वते । लभन्ते भवलक्षेषु यतो दुःखमनेकशः ॥४४ दुःसहासुखसंवधिविषयासेवमोहिताः। कृपणाः कुर्वते पापमद्यश्वीने ऽपि जीविते ॥४५ न किंचिद् विद्यते वस्तु संसारे क्षणभङ्गुरे। शर्मदं सहगं पूतमात्मनीनेमनश्वरम् ॥४६
४१) १. क दाता। ४२) १. क मूर्खः । ४४) १. विषयोद्भवसुखस्यार्थे । २. क पापकर्म । ३. क यस्मात्पापकर्मणः सकाशात् । ४५) १. मद्य; क पञ्चेन्द्रियविषयोद्भवमोहिताः । २. अद्यश्वसंबंधीनादीचिते [?] ४६) १. क सहजोत्पन्नम् । २. क आत्महितम् । ३. क निरन्तरं ।
धर्म तो अभीष्ट काम, अर्थ और मोक्ष इनका देनेवाला तथा सब अनर्थों की खानस्वरूप अधर्म उन्हीं कामादिकोंको नष्ट करनेवाला है ॥४१॥
लोकमें जितने भी प्रशंसनीय पदार्थ हैं वे सब धर्मके प्रभावसे तथा जितने भी निन्दनीय पदार्थ हैं वे सब पापके प्रभावसे होते हैं, यह सर्वत्र विख्यात है और इसे मूर्ख भी जानते हैं ॥४२॥
___ इस प्रकार धर्म और अधर्मके फलको प्रत्यक्षमें जान करके विवेकी जीव सब प्रकारसे अधर्मका परित्याग करते हुए निरन्तर धर्म किया करते हैं ॥४३॥
नीच पुरुष एक भवमें ही किंचित् सुखकी अभिलाषासे वह कार्य कर बैठते हैं कि जिससे उन्हें लाखों भवोंमें अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगना पड़ता है ॥४४॥
क्षुद्र जन दुःसह दुखको बढ़ानेवाली विषयरूप मदिराके सेवनमें मुग्ध होकर जीवनके आज-कल रहनेवाला (नश्वर) होनेपर भी पाप कर्मको किया करते हैं ॥४५।।
क्षणनश्वर संसारमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो कि सुखप्रद, जीवके साथ जानेवाली, पवित्र, आत्माके लिए हितकारक और स्थायी हो ॥४६॥
४२) इ शैरपि कथ्यते । ४५) ब दुःसहाः सुख; इ दुःसहादुःख, अड इ कुटिलाः कुर्वते । ४६) अनीनमविनश्वरं।