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________________ धर्मपरीक्षा-२ रुष्टेन गजराजेन वृक्षः कूपतटस्थितः । कम्पितो रभसाभ्येत्यासंयतेनेव संयमः॥१२ . चलिताः सर्वतस्तत्रे चलिते मधुमक्षिकाः। विविधा मधुजालस्था वेदना इव दुःखदाः॥१३ मक्षिकाभिरसौ ताभिर्मर्माविद्भिः समन्ततः । ऊवं विलोकयामास दश्यमानो बृहद्व्यथः ॥१४ ऊ/कृतमुखस्यास्य वीक्षमाणस्य पादपम् । दीनस्यौष्ठतटे सूक्ष्मः पतितो मधुनः कणः ॥१५ श्वभ्रबाधाधिका बाधामवगण्य स दुर्मनाः । स्वादमानो महासौख्यं मन्यते मधुविषम् ॥१६ अविचिन्त्यैवे ताः पीडास्तत्स्वीकृतमुखो ऽधमः । तदेवास्वादनासक्तः सोऽभिलालष्यते पतत ॥१७ १२) १. शीघ्रम् । १३) १. वृक्षे। १६) १. बिन्दुकम्; क कणं । १७) १. [अ] विचार्य, विसार्य । २. क मधुकणः पुनर्वाञ्छन् । उधर क्रुद्ध उस हाथीने आकर कुएँ के किनारेपर स्थित वृक्षको इस प्रकार वेगसे झकझोर दिया जिस प्रकार कि असंयमी जीव आराधनीय संयमको झकझोर देता है ॥१२॥ उस वृक्षके कम्पित होनेसे उसके ऊपर छत्तोंमें स्थित अनेक प्रकारकी मधुमक्खियाँ दुःखद वेदनाओंके समान ही मानो सब ओरसे विचलित हो उठीं ॥१३॥ __मर्मको वेधनेवाली उन मधुमक्खियोंके द्वारा सब ओरसे काटनेपर वह पथिक महान् दुःखका अनुभव करता हुआ ऊपर देखने लगा ॥१४॥ ___उस वृक्षकी ओर देखते हुए उसने जैसे ही अपने मुँहको ऊपर किया वैसे ही उस बेचारे पथिकके ओठोंके किनारे एक छोटी-सी शहदकी बूंद आ पड़ी ॥१५॥ उस समय यद्यपि उसको नरककी वेदनासे भी अधिक वेदना हो रही थी, तो भी उसने उस वेदनाको कुछ भी न मानकर उस शहदकी बूंदके स्वादमें ही अतिशय सुख माना ॥१६॥ तब वह मूर्ख उन सब पीड़ाओंका कुछ भी विचार न करके अपने मुखमें वह शहद लेता हुआ उसी शहदकी बूंदके स्वादमें मग्न हो गया और उसीके बार-बार गिरनेकी अभिलाषा करने लगा ॥१७॥ १२) अ ब रभसा सेव्यः संयं; क भ्येत्यासंयमेनेव । १३) अ इ दुःसहाः। १४) इ मर्मविद्भिः; इ बृहव्यथाम् । १६) अब इमवमन्य। १७) अ ब इ अविचिन्त्य स ताः पीडाः स्तब्धीकृतमुखो; अ भिलाषेष्यते; अ ड पतन् ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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