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सभायामथ तत्रैको भव्यः पप्रच्छ भक्तितः । त्वा निर्मात साधु' मवधिज्ञानलोचनम् ॥१ भगवन्नत्र संसारे सरतां सारवजिते । कियत्सुखं कियद् दुःखं कथ्यतां मे प्रसादतः ॥२ ततो ऽवादीद्यतिर्भद्र' श्रूयतां कथयामि ते । विभागो दुःशकः कतु संसारे सुखदुःखयोः ॥ ३ मया निदर्शनं दत्त्वा किंचित्तदपि कथ्यते । न हि बोधयितुं शक्यास्तद्विना मन्दमेधसः ॥४
अनन्तसत्वकीर्णायां संसृत्यामिव मार्गगः । दीर्घायां कश्वनाटव्यां प्रविष्टो दैवयोगतः ॥५
१) १. क मुनिम् ।
२) १. भ्रमतां जीवानाम् ।
३) १. हे मनोवेग । २. असाध्यः अशक्यः; क दुःशक्यः ।
४) १. दृष्टान्तमाह । २. क तेन दृष्टान्तेन विना । ३. क मूर्खस्य ।
५) १. ना पुमान् ।
उस सभामें किसी एक भव्यने जिनमति नामके अवधिज्ञानी साधुको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उनसे पूछा कि हे भगवन् ! इस असार संसारमें परिभ्रमण करनेवाले प्राणियोंको सुख कितना और दुःख कितना प्राप्त होता है, यह कृपा करके मुझे कहिए || १-२ ॥
इसपर वे मुनि बोले कि हे भद्र ! सुनो, मैं उसको तुम्हें बतलाता हूँ । यद्यपि संसारमें सुख और दुःखका विभाग करना अशक्य है, तो भी मैं दृष्टान्त देकर उसके सम्बन्धमें कुछ कहता हूँ । कारण यह है कि बिना दृष्टान्तके मन्दबुद्धि जनोंको समझाना शक्य नहीं है ॥ ३-४ ॥
जैसे - दुर्भाग्यसे कोई एक पथिक अनन्त जीवोंसे परिपूर्ण संसारके समान अनेक जीव-जन्तुओंसे व्याप्त किसी लम्बे वनके भीतर प्रविष्ट हुआ ||५||
१) इ पप्रच्छ सादरम्; ड जिनपति । ४) ड इन विबोध; व शक्यात्तद्विना ।