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________________ १८ अमितगतिविरचिता रामा विदग्धा' रमणीयरूपाः कटाक्ष विक्षेपशरैस्तुदन्त्येः । 3 ४ भ्रू चारुचापास्तरुणं' जनौघं जयन्ति यस्यां ' 'द्युनिवासियोषाः ॥६२ यदी लक्ष्मीमवलोक्य यक्षा' व्रजन्ति लज्जां हृदि दुर्निवाराम् । महानिधानाधिपतित्वगर्वाः सा शक्यते वर्णयितुं कथं पूः ॥ ६३ अस्त्युत्तरस्यां दिशि चारु तस्या' महाफलैः सद्भिरिवागपूगैः । उद्यानमुद्योतित सर्वदिक्कं प्रप्रीणिताशेषशरीरिवगैः ॥६४ सर्व तुभिर्देशित चित्र चेटेवि रोधमुक्तैरवगाह्यमानम्' । यदिन्द्रियानन्दकरैरनेकैः संवैरिवाभात्सुमनोभिरामैः ||६५ ६२) १. निपुणाः क प्रवीणाः । २. पीडयन्त्यः; क पीडयन्तः । ३. क युवानम् । ४. क जनसमूहम् । ५. क नगर्यां । ६. स्वर्ग । ७. क देवाङ्गनाः । ६३) १. क कुबेरादयः । २. क उज्जयिनी । ६४) १. क मनोहरनगर्याः । २. सत्पुरुषैरिव । ३. वृक्षसमूहैः । ६५) १. वनम् । २. वनचरैः श्वापदैः पक्षिभिः । ३. पुष्पं, पक्षे मनः । उस नगरी में स्थित चतुर व सुन्दर रूपको धारण करनेवाली स्त्रियाँ कटाक्षोंके फेंकनेरूप बाणोंसे संयुक्त भ्रुकुटियोंरूप मनोहर धनुषोंके द्वारा युवावस्थावाले जनसमूहको पीड़ित करती हुईं देवांगनाओं को जीतती हैं ॥ ६२ ॥ जिस नगरीकी लक्ष्मीको देखकर महती सम्पत्तिके स्वामी होनेका अभिमान करनेवाले कुबेर हृदयमें अनिवार्य लज्जाको प्राप्त होते हैं उस नगरीका वर्णन भला कैसे किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं किया जा सकता है- वह अवर्णनीय है || ६३॥ उस उज्जयिनी नगरीकी उत्तर दिशामें एक सुन्दर उद्यान शोभायमान है । वह उद्यान सत्पुरुषोंके समान महान फलोंको देनेवाले वृक्षसमूहोंके द्वारा सब दिशाओंको प्रकाशित करता था - जिस प्रकार सत्पुरुष दूसरोंके लिए महान फल ( स्वर्गादि ) को दिया करते हैं उसी प्रकार उस उद्यानके वृक्षसमूह भी प्राणियोंके लिए अनेक प्रकारके फलों (आम, नीबू एवं नारंगी आदि ) को देते थे तथा जैसे सब प्राणिसमूह सत्पुरुषोंके आश्रयसे सन्तुष्ट हैं उसी प्रकार वे उन वृक्षसमूहों के आश्रय से भी सन्तुष्ट होते थे । इसके अतिरिक्त वह उद्यान परस्परके विरोधसे रहित होकर प्राप्त हुई व अनेक प्रकारकी चेष्टाओंको दिखलानेवाली सब ऋतुओं के द्वारा सेवित होता हुआ जिस प्रकार इन्द्रियोंको आह्लादित करनेवाले अनेक प्राणियों (भील, सिंहव्याघ्र एवं तोता आदि ) से सुशोभित होता था उसी प्रकार वह सुन्दर सुमनों (फूलों तथा पवित्र मनवाले मुनियों आदि ) से भी सुशोभित होता था ।।६४-६५।। ६२) अ 'चारुचापैस्तरुणं; निवासयोषाः । ६४) व सिद्धिरिवागळे ; इ रिवाशुपूगैः ; इ सर्वदिक्षं । ६५) इ विरोधिमुख्यैरवं ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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