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धर्मपरीक्षा - २०
चत्वार उक्ताः प्रथमाः कषाया मिथ्यात्वसम्यक्त्वविमिश्रयुक्ताः । सम्यक्त्वरत्नव्यवहारसक्ता धर्मद्रुमं कर्तयितुं कुठाराः ॥ ६८ तेषां व्यपाये प्रतिबन्धकानां सम्यक्त्वमाविर्भवति प्रशस्तम् । शुद्धं घनानामिव भानुबिम्बं विच्छिन्न निःशेषतमः प्रचारम् ॥६९ व्रजन्ति सप्ताद्यकला यदा क्षयं तदाङ्गिनां क्षायिकेमक्षयं मतम् । यदा शमं यान्ति तदास्ति शामिकं द्वयं यदा यान्ति तदानुवेदिकम् ॥७० जहाति शङ्कां न करोति काङ्क्षां तत्त्वे चिकित्सां ' न दधाति जैने । धीरः कुदेवे कुतौ कुधर्मे विशुद्धबुद्धिनं तनोति मोहम् ॥७१ पिधाय दोषं यमिनां स्थिरत्वं चित्ते पवित्रे कुरुते विचित्रे । पुष्णाति वात्सल्यमपास्तशल्यं धर्मं विहिंसं नयते प्रकाशम् ॥ २
६८) १. प्रकृतयः । २. सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्वावेदक |
६९) १. कषायानां सप्तप्रकृतीनाम् ।
७०) १. क्षयोपशमम् ।
७१) १. अप्रीतिम् ।
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शुद्ध करके उनके संसारपरिभ्रमणको नष्ट करनेवाला है । वह तीन प्रकारका है - क्षायिक, औपशमिक और वेदक || ६७||
मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व से संयुक्त प्रथम चार कृषाय - अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ - सम्यग्दर्शनरूप रत्नके नष्ट करने में समर्थ होकर धर्मरूप वृक्ष के काटने के लिए कुठारके समान कहे गये हैं ॥६८॥
जिस प्रकार बादलोंके अभाव में समस्त अन्धकारके संचारको नष्ट करनेवाला निर्म सूर्यका बिम्ब आविर्भूत होता है उसी प्रकार उक्त सम्यग्दर्शनको आच्छादित करने वाली उपर्युक्त सात कर्म-प्रकृतियोंके उदयाभाव में वह निर्मल सम्यग्दर्शन आविर्भूत होता है ॥ ६९ ॥ उपर्युक्त सात प्रकृतियाँ जब क्षयको प्राप्त हो जाती हैं तब प्राणियोंके क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है और वह अविनश्वर माना गया है। वे ही प्रकृतियाँ जब उपशम अवस्थाको प्राप्त होती हैं तब औपशमिक सम्यग्दर्शन और जब वे दोनों ही अवस्थाओंको क्षय व उपशमभाव (क्षयोपशम ) को प्राप्त होती हैं तब वेदकसम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है ॥७०॥
निर्मल बुद्धिसे संयुक्त धीर सम्यग्दृष्टि जीव जिन भगवान् के द्वारा निरूपित वस्तुरूपके विषयमें शंकाको छोड़ता है-उसके विषय में निःशंक होकर दृढ़ श्रद्धान करता है, वह सांसारिक सुखकी इच्छा नहीं करता है, अपवित्र दिखनेवाले साधुके शरीर को देखकर घृणा नहीं करता है; कुदेव, कुगुरु और कुधर्मके विषय में मूढ़ताको - अविवेक बुद्धिको नहीं करता है, संयमी जनोंके दोषोंको आच्छादित करके अपने निर्मल अन्तःकरणमें उनको विविध प्रकार के चारित्र में स्थिर करनेका विचार करता है, साधर्मी जनके प्रति वात्सल्य
६८) ब क ड इव्यपहार । ७० ) ड इद्यकलम् ब इ याति.... तदा तु वेदिकम् । ७१) अ ददाति । ७२) इविहंसम् ।