________________
३४२
अमितगतिविरचिता त्यजति यो ऽनुमति सकले विधौ' विविधजन्तुनिकायवितापिनि । हुतभुजीव विबोधपरायणा' विगलितानुमति निगदन्ति तम् ॥६२ न वल्भते यो विजितेन्द्रियो ऽशनं मनोवचःकायनियोगकल्पितम्। महान्तमुद्दिष्टनिवृत्तचेतसं वदन्ति तं प्रासुकभोजनोद्यतम् ॥६३ एकादशश्रावकवृत्तमित्थं करोति यः पूतमतन्द्रितात्मा'। नरामरश्रीसुखतृप्तचित्तः सिद्धास्पदं याति स कर्ममुक्तः ।।६४ व्रतेषु सर्वेषु मतं प्रधान सम्यक्त्वमुक्षेष्विव चन्द्रबिम्बम् । समस्ततापव्यपघातशक्तं विभास्वरं भासितसर्वतत्वम् ॥६५ द्वेषा निसर्गाधिगमप्रसतं सम्यक्त्वमिष्टं भववृक्षशस्त्रम् । तत्त्वोपदेशव्यतिरिक्तमाद्यं जिनागमाभ्यासभवं द्वितीयम् ॥६६ क्षायिकं शामिकं वेदकं देहिनां दर्शनं ज्ञानचारित्रशुद्धिप्रदम् ।
जायते त्रिप्रकारं भवध्वंसक चिन्तिताशेषशर्मप्रदानक्षमम् ॥६७ ६२) १. कार्ये । २. कार्ये। ६३) १. निर्मितम् । ६४) १. आलशवजित । ६५) १. नक्षत्रेषु । ६७) १. उपशमिकम् ।
जो विवेकी श्रावक अग्निके समान अनेक प्रकारके प्राणिसमूहको सन्तप्त करनेवाले कार्यमें अनुमतिको छोड़ता है-उसकी अनुमोदना नहीं करता है उसे अनुमतिविरतदसवी प्रतिमाका धारक-कहा जाता है ॥६२।।
जो जितेन्द्रिय श्रावक मन, वचन व कायसे अपने लिए निर्मित भोजनको नहीं करता है उस प्रासुक भोजनके करनेमें उद्यत महापुरुषको उद्दिष्टविरत-ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक-कहते हैं ॥६३॥ _ इस प्रकारसे जो आलस्यसे रहित होकर ग्यारह प्रकारके पवित्र श्रावकचारित्रका परिपालन करता है वह मनुष्यों और देवोंकी लक्ष्मीसे सन्तुष्ट होकर-उसे भोगकर-अन्त में कर्मबन्धसे रहित होता हुआ मोक्ष पदको प्राप्त कर लेता है ॥६४॥
जिस प्रकार नक्षत्रोंमें चन्द्रमा प्रधान माना जाता है उसी प्रकार सब व्रतोंमें सम्यग्दर्शन प्रधान माना गया है। वह सम्यग्दर्शन उक्त चन्द्रमाके ही समान समस्त सन्तापके नष्ट करने में समर्थ, देदीप्यमान और सब तत्त्वोंको प्रकट दिखलानेवाला है ।।६।।
संसाररूप वृक्षके काटनेके लिए शस्त्रके समान वह सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगमसे उत्पन्न होनेके कारण दो प्रकारका माना गया है। उनमें प्रथम-निसगंज सम्यग्दर्शनबाह्य तत्त्वोपदेशसे रहित और द्वितीय-अधिगमज सम्यग्दर्शन-जिनागमके अभ्यासके आश्रयसे उत्पन्न होनेवाला है ॥६६॥
चिन्तित समस्त सुखके देने में समर्थ वह सम्यग्दर्शन प्राणियोंके ज्ञान और चारित्रको ६२) ब ड परायणे, अ इ परायणो। ६४) इ शिवास्पदम् । ६५) अघातशक्ति विभासुरे । ६६) ब तत्रोपदेश ।