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________________ ३३७ धर्मपरीक्षा-२० ज्ञातेन शास्त्रेण यतो विधेको विवेकतो दुष्कृतकमहानिः । तस्याः' पदं याति यतिः पवित्रं देयं ततः शास्त्रमनर्थयाति ॥३७ भवति यत्र न जीवगणव्यथा विषयवैरिवशो न यतो यतिः।। भजति पापविघाति यतस्तपस्तदिह दानमुशन्ति सुखप्रदम् ॥३८ दानमन्यदपि देयमनिन्धं ज्ञानवर्शनचरित्रविधि। वीक्ष्य पात्रमपहस्तितसंगं शीलसंयमदयादमगेहम् ॥३९ दायकाय न ददाति नित्ति काक्षितां गृहकलत्रवतिने । ग्राहको गृहकलप्रदूषितस्तार्यते न शिलया शिलाम्बुधौ ॥४० चेतसि दुष्टा' वचसि विशिष्टा सर्व निकृष्टा विटशतघृष्टा। दूरमपास्यो पटुभिरुपास्या जातु न वेश्या हतशुभलेश्या ॥४१ ३७) १. हान्याः । ३८) १. दाने । २. कथयन्ति । ३९) १. हतसंगं, त्यक्तसंगम् । ४०) १. पात्र। ४१) १. नीचा । २. त्याज्या। चूंकि शास्त्रके परिज्ञानसे विवेक-हेय-उपादेयका विचार, उस विवेकसे पाप कर्मकी निर्जरा और उस कर्मनिर्जरासे यतिको पवित्र पदकी-मोक्षकी-प्राप्ति होती है-इसीलिए सब अनर्थों के विघातक उस शास्त्रको अवश्य देना चाहिए ॥३७॥ जिस दानमें प्राणिसमूहको किसी प्रकारकी पीड़ा न होती हो, जिसके प्रभावसे मुनि विषयरूप शत्रुके अधीन नहीं होता है, तथा जिस दानके आश्रयसे वह पापके विघातक तपका आराधन करता है; वही दान यहाँ सुखप्रद माना जाता है ॥३८॥ परिग्रहसे रहित एवं शील, संयम, दया व दमके स्थानभूत पात्रको देखकर उसे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्रके बढ़ानेवाले अन्य भी निर्दोष दानको देना चाहिए ।।३९।। जो दानका ग्राहक घर एवं स्त्री आदिमें अनुरक्त होता है वह उसीके समान घर व स्त्री आदिके मध्यमें रहनेवाले दाताके लिए अभीष्ट मुक्तिको नहीं दे सकता है । सो ठीक भी है, क्योंकि, समुद्रमें एक चट्टान दूसरी चट्टानको पार नहीं कर सकती है। अभिप्राय यह है कि गृहस्थ चूँकि घरमें स्थित होकर स्त्री व पुत्रादिमें अनुरक्त होता हुआ जिस आरम्भजनित पापको उत्पन्न करता है उसको नष्ट करने के लिए उसे उस घर आदिके मोहसे रहित निर्ग्रन्थ मुनिके लिए ही दान देना चाहिए, न कि अपने समान घर आदिमें मुग्ध रहनेवाले अन्य रागी जनको ॥४०॥ जो अतिशय हीन वेश्या मनमें घृणित विचारोंको रखती हुई सम्भाषणमें चतुर होती है, जिसका सैकड़ों जार पुरुष घर्षण-चुम्बन आदि-किया करते हैं, तथा जो शुभ लेश्यासे ३७) अ विचित्रदेयं for यतिः पवित्रम् । ३९) क चारित्र । ४०) अ ब ड इ निवृत्तिम्; क ड शिलाम्बुधेः । ४३
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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