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________________ ३३६ अमितगतिविरचिता कान्तिकोतिबलवीर्ययशःश्रीसिद्धिबुद्धिशमसंयमधर्माः । देहिनां वितरताशनदानं शर्मदा जगति सन्ति वितीर्णाः ॥३२ याशने ऽस्ति तनुरक्षणशक्तिः सा न हेममणिरत्नगणानाम् । येन तेन वितरन्ति यतिम्घस्तानपास्य कृतिनो ऽशनदानम् ॥३३ शक्नोति कतुन तपस्तपस्वी विद्धो यतो व्याधिभिरुग्रदोषैः। भैषज्यदानं विधिना वितीयं ततः सदा व्याधिविघातकारि ॥३४ यो भैषज्यं व्याधिविध्वंसि दत्ते व्याध्यानां योगिनां भक्तियुक्तः । नासौ पीडयः श्लेष्मपित्तानिलोत्थैर्व्याधिवातैः पावकैम्बुिमग्नः ॥३५ द्वेषरागमदमत्सरमच्छक्रिोधलोभभयनाशसमर्थम् । सिद्धिसापथदर्शि वितीय शास्त्रमव्ययसुखाय यतिभ्यः ।।३६ ३३) १. हेमादीन् । २. विहाय । ३४) १. व्याप्तपीडितः। ३६) १. परिग्रह। जो सत्पुरुष प्राणियोंको भोजन देता है वह लोकमें जो कान्ति, कीर्ति, बल, वीर्य, यश, लक्ष्मी, सिद्धि, बुद्धि, शान्ति, संयम और धर्म आदि सुखप्रद पदार्थ हैं उन सभीको देता है; ऐसा समझना चाहिए ॥३२॥ जो शरीरसंरक्षणकी शक्ति भोजनमें है वह सुवर्ण, मणि और रत्नसमूहमें सम्भव नहीं है। इसीलिए दूरदर्शी विद्वज्जन मुनियोंके लिए उपर्युक्त सुवर्णादिको न देकर आहारदानको दिया करते हैं ॥३३॥ तीव्र दोषोंसे परिपूर्ण रोगोंसे बेधा गया-खेदको प्राप्त हुआ-साधु चूँ कि तप करनेमें समर्थ नहीं होता है, अतएव उसे उन रोगोंको नष्ट करनेवाले औषधदानको विधिपूर्वक निरन्तर देना चाहिए ॥३४॥ - जो श्रावक रोगसे पीड़ित मुनिजनोंको भक्तिपूर्वक उस रोगकी नाशक औषधिको देता है वह कभी कफ, पित्त और वात दोषसे उत्पन्न होनेवाले रोगसमूहसे इस प्रकार पीड़ित नहीं होता जिस प्रकार कि जलमें डूबा हुआ व्यक्ति कभी अग्निके सन्तापसे पीड़ित नहीं होता है ॥३५॥ जो शास्त्र द्वेष, राग, मद, मात्सर्य, ममता, क्रोध, लोभ और भयके नष्ट करनेमें समर्थ होकर मोक्षरूप महलके मार्गको दिखलाता है उसे अविनश्वर सुखकी प्राप्ति के निमित्त मुनिजनोंको प्रदान करना चाहिए ॥३६॥ ३४) क इ विद्धस्ततो। ३५) अ वह्निभिर्वाप्यमग्नः; व वह्निभिर्वा । ३२) अशनं सता शर्मदा। ३६) अ ब वितार्यम् ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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