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________________ ३२० अमितगतिविरचिता लाघवं जन्यते येन यन्म्लेच्छैरपि गते । तदसत्यं वचो वाच्यं न कदाचिदुपासकैः ॥४८ क्षेत्रे ग्रामे खले घोषे पत्तने कानने ऽध्वनि । विस्मृतं पतितं नष्टं निहितं स्थापितं स्थितम् ॥४९ अदत्तं न परद्रव्यं स्वीकुर्वन्ति महाधियः । निर्माल्यमिव पश्यन्तः परतापविभीरवः ॥५० [युग्मम् ] अर्था बहिश्चराः प्राणाः सर्वव्यापारकारिणः । म्रियन्ते सहसा मर्त्यास्तेषां व्यपगमे सति ॥ ५१ धर्मो बन्धुः पिता पुत्रः कान्तिः कीर्तिर्मतिः प्रिया । मुषिता मुष्णता द्रव्यं समस्ताः सन्ति शर्मंदाः ॥५२ एकस्यैकक्षणं दुःखं जायते मरणे सति । आजन्म सकुटुम्बस्य पुंसो द्रव्यविलोपने ॥५३ ४८) १. निन्द्यते । ५२) १. एते । जिस असत्य वचनके भाषणसे लघुता प्रकट होती है तथा जिसकी म्लेच्छ जन भी निन्दा किया करते हैं ऐसे उस निकृष्ट असत्य वचनका भाषण श्रावकोंको कभी भी नहीं करना चाहिए || ४८ ॥ जो निर्मल बुद्धिके धारक महापुरुष पापकार्य से डरते हैं वे खेत, गाँव, खलिहान, गोष्ठ ( गायके रहनेका स्थान), नगर, वन और मार्ग में भूले हुए, गिरे हुए, नष्ट हुए, रखे हुए, रखवाये हुए अथवा अवस्थानको प्राप्त हुए दूसरेके द्रव्यको - धनादिको - निर्माल्य के समान अग्राह्य जानकर उसे बिना दिये कभी स्वीकार नहीं करते हैं ।।४९-५० ।। सब ही व्यवहारको सिद्ध करनेवाले धन - सुवर्ण, चाँदी, धान्य एवं गवादि — मनुष्योंके बाह्यमें संचार करनेवाले प्राणोंके समान हैं। इसका कारण यह है कि उनका विनाश होनेपर मनुष्य अकस्मात् मरणको प्राप्त हो जाते हैं ॥ ५१ ॥ जो दूसरे के धनका अपहरण करता है वह उसके धर्म, बन्धु, पिता, पुत्र, कान्ति, कीर्ति, बुद्धि और प्रिय पत्नीका अपहरण करता है; ऐसा समझना चाहिए। कारण यह कि वे सब उस धनके रहनेपर ही सब कुछ - सब प्रकारके सुखको - दिया करते हैं, बिना धनके वे भी दुखके कारण हो जाते हैं ||५२|| मनुष्यको किसी एकका मरण हो जानेपर एक क्षणके लिए कुछ थोड़े ही कालके लिए - दुख होता है, परन्तु अन्यके द्वारा धनका अपहरण किये जानेपर वह जीवनपर्यन्त सब कुटुम्बके साथ दुखी रहता है ॥५३॥ ५०) व पश्यन्ति । ५२ ) अ सन्ति सर्वदा ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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