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धर्मपरीक्षा - १९
मक्षिकाभिर्यदादाय रसमेकैकपुष्पतः । संचितं तन्मधुत्सृष्टं भक्षयन्ति न धार्मिकाः ॥४१ मांसमद्यमधुस्था ये जन्तवो रसकायिकाः । सर्वे तदुपयोगेन भक्ष्यन्ते निःकृपेरिमे ॥४२ फलं खादन्ति ये नीचाः पञ्चोदुम्बरसंभवम् । पश्यन्तो ऽङ्गिगणाकीर्णं तेषामस्ति कुतः कृपा ॥४३ मुञ्चजिवविध्वंसं जिनाज्ञापालिभिस्त्रिधा । उदुम्बरं फलं भक्ष्यं पञ्चधापि न सात्त्विकैः ॥४४ कन्दं मूलं फलं पुष्पं नवनीतं कृपापरैः । अन्नमन्यदपि त्याज्यं प्राणिसंभवकारणम् ॥४५ कामक्रोधमदद्वेषलोभमोहादिसंभवम् । परपीडाकरं वाक्यं त्यजनीयं हितार्थभिः ॥४६
धर्मो निषूद्यते येन लोक येन विरुध्यते । विश्वासो हन्यते येन तद्वचो भाष्यते कथम् ॥४७
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मधुमक्खियाँ एक-एक पुष्प से रसको लेकर जिसका संचय किया करती हैं उनके उस मधु धर्मात्मा जन कभी भक्षण नहीं किया करते हैं ॥ ४१ ॥
मांस, मद्य और मधुमें जो रसकायिक-तत्तज्जातीय - क्षुद्र जीव उत्पन्न हुआ करते हैं; उन तीनोंका सेवन करनेवाले निर्दय प्राणी उन सब ही जीवोंको खा डालते हैं ॥४२॥
जो नीच जन ऊमर आदि (बड़, पीपल, काकोदुम्बर और गूलर ) पाँच प्रकार के वृक्षोंसे उत्पन्न फलोंको जन्तुसमूहसे व्याप्त देखते हुए भी उनका भक्षण किया करते हैं उनके हृदय में भला दया कहाँसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है ||४३||
जिन भगवान्की आज्ञाका परिपालन करते हुए जिन सात्त्विक जनोंने- धर्मोत्साही मनुष्योंने— जीववधका परित्याग कर दिया है वे उक्त पाँचों ही प्रकारके उदुम्बर फलोंका मन, वचन व कायसे भक्षण नहीं किया करते हैं || ४४ ||
जो कन्द (सूरन, शकरकन्द व गाजर आदि), जड़, फल, फूल, मक्खन, अन्न एवं अन्य भी वस्तुएँ प्राणियोंकी उत्पत्तिकी कारणभूत हों; दयालु जनोंको उन सबका ही परित्याग कर देना चाहिए ||४५||
काम, क्रोध, मद, द्वेष, लोभ और मोह आदिसे उत्पन्न होनेवाला जो वचन दूसरोंको पीड़ा उत्पन्न करनेवाला हो ऐसे वचनका हितैषी जनोंको परित्याग करना चाहिए ॥ ४६ ॥
जिस वचनके द्वारा धर्मका विघात होता हो, लोकविरोध होता हो तथा विश्वासघात उत्पन्न होता हो; ऐसे वचनका उच्चारण कैसे किया जाता है, यह विचारणीय है ॥४७॥
४२) ब मद्यमांस; अ ब मधूत्था । ४७ ) ड विरोध्यते .... तद्वचो वाच्यते ।