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धर्मपरीक्षा - १८
सुदुर्वारं घोरं स्थगित जनतां मोहतिमिरं
मनः सद्मान्तःस्थं क्षपयितुमलं वाक्यकिरणैः ।
ततः स्तुत्वा नत्वामितगतिमत केव लिवि
पदाभ्यासे भक्त्या जिनमतियतेस्तौ न्यवसताम् ॥१००
इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायामष्टादशः परिच्छेदः ॥ १८ ॥
१००) १. समर्थम् । २. केवलज्ञानिनः । ३. उपाविशताम् । किं कृत्वा । पूर्वंम् ।
वहाँ पहुँचकर उन दोनोंने प्रथमतः अपरिमित - अनन्त - विषयों में संचार करनेवाली बुद्धिसे - केवलज्ञानसे – सुशोभित उस केवलीरूप सूर्यको स्तुतिपूर्वक नमस्कार किया जो कि अपने वाक्योंरूप किरणोंके द्वारा अन्तःकरण रूप भवनके भीतर अवस्थित, अतिशय दुर्निवार, भयानक एवं आत्मगुणों को आच्छादित करके उदित हुए ऐसे अज्ञानरूप अन्धकारके नष्ट करने में सर्वथा समर्थ है । तत्पश्चात् वे दोनों जिनमति नामक मुनिके चरणोंके सान्निध्य में भक्तिपूर्वक जा बैठे ॥ १००॥
इस प्रकार आचार्य अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षा में अठारहवाँ परिच्छेद
समाप्त हुआ || १८॥
१००) अ जनितं क डन्यविशताम् ।
; क ड जनतं; अ मनःस्वप्नान्तःस्थं; अ ततः श्रुत्वा ; गतिपति
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अनिषदताम् ;