SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१० ९६) १. कुरु । ९७) १. कार्ये । अमितगतिविरचिता या त्रिधाग्राहि जिनेन्द्रशासनं विहाय मिथ्यात्वविषं महामते । तथा विदध्या व्रतरत्नभूषितस्तव प्रसादेन यथास्मि सांप्रतम् ॥९६ निरस्तमिथ्यात्वविषस्य भारतीं निशम्य मित्रस्य मुदं ययावसौ । जनस्य सिद्धे हि मनीषिते विधौ' न कस्य तोषः सहसा प्रवर्तते ॥९७ प्रगृह्य मित्र जिनवाक्यवासितं प्रचक्रमे गन्तुमनन्यमानसैः । असौ पुरीमुज्जयिनीं त्वरान्वितः प्रयोजने कः सुहृदां प्रमाद्यति ॥९८ विमानमारुह्य मनःस्यदं 'ततस्तमोपहैराभरणैरलंकृतौ । अगच्छता मुज्जयिनीपुरीवनं सुधाशिनाथविव नन्दनं मुदा ॥९९ ९८) १. प्रारेभे । २. मित्रात् । ३. कार्ये । ९९) १. मनोवेगम् । २. इन्द्रौ । समीचीन बुद्ध धारक ! मैंने मिथ्यात्वरूप विषको छोड़कर मन, वचन व काय तीनों प्रकार से जिनमतको ग्रहण कर लिया है । अब इस समय तुम्हारी कृपासे मैं जैसे भी व्रतरूप रत्न से विभूषित हो सकूँ वैसा प्रयत्न करो || ९६ || इस प्रकार जिसका मिथ्यात्वरूप विष नष्ट हो चुका है ऐसे उस अपने पवनवेग मित्रके उपर्युक्त कथनको सुनकर मनोवेगको बहुत हर्ष हुआ । ठीक है - प्राणीका जब अभीष्ट कार्य सिद्ध हो जाता है तब भला सहसा किसको सन्तोष नहीं हुआ करता है ? अर्थात् अभीष्ट प्रयोजनके सिद्ध हो जानेपर सभीको सन्तोष हुआ करता है ||९७|| तब एकमात्र मित्र हितकार्यमें दत्तचित्त हुए उस मनोवेगने जिसका अन्तःकरण जिनवाणी से सुसंस्कृत हो चुका था उस मित्र पवनवेगको साथ लेकर शीघ्रता से उज्जयिनी नगरीके लिए जाने की तैयारी की। ठीक भी है - मित्रोंके कार्य में भला कौन-सा बुद्धिमान् आलस्य किया करता है ? अर्थात् सच्चा मित्र अपने मित्रके कार्य में कभी भी असावधानी नहीं किया करता है ||९८॥ तत्पश्चात् अन्धकारसमूहको नष्ट करनेवाले आभूषणोंसे विभूषित वे दोनों मित्र की गति के समान वेगसे संचार करनेवाले विमानपर आरूढ़ होकर आनन्दपूर्वक उज्जयिनी नगरीके वनमें इस प्रकारसे आ पहुँचे जिस प्रकार कि दो इन्द्र सहर्ष नन्दन वनमें पहुँचते हैं ॥ ९९ ॥ ९६) अ जिनेशशासनं ; अ क आगच्छता । अइ विदध्याद्व्रत । ९७) इ सहसा प्रजायते । ९९) अ°रलंकृतैः ;
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy