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________________ ३०२ अमितगतिविरचिता ततो देवतया प्रोक्ता भो भो भूपा न युज्यते। विधातुमीदृशं कर्म लिङ्गेनानेन निन्दितम् ॥४८ गृहीत्वा स्वयमाहारं भुञ्जते ये दिगम्बराः। नोत्तारो विद्यते तेषां नीचानां भववारिधेः ॥४९ पाणिपात्रे परैर्दत्तं प्रासुकं परवेश्मनि । आहारं भुञ्जते जैना योगिनो धर्मवृद्धये ॥५० निशम्येति वचो देव्याः कृत्वा कोपोनमाकुलाः । पानीयं ते पपुर्घोरं कालकूटमिवोजितम् ॥५१ हित्वा लज्जां गृहं याताः केचित् क्षुत्तटकरालिताः। अपन्ते प्राणिनस्तावद्याच्चेतो न दुष्यति ॥५२ यदि यामो गृहं हित्वा देवमत्र वनान्तरे। तदानों भरतो रुष्टो वृत्तिच्छेदं करोति नः ॥५३ वरमत्र स्थिताः सेवां विदधाना विभोर्वने । इति ध्यात्वापरे तस्थुस्तत्र कन्दादिखादिनः ॥५४ उनकी इस संयमविरुद्ध प्रवृत्तिको देखकर किसी देवताने उनसे कहा कि हे राजाओ! इस दिगम्बर वेषके साथ ऐसा निकृष्ट कार्य करना योग्य नहीं है। जो दिगम्बर होकरजिनलिंगके धारण करते हुए स्वयं आहारको ग्रहण करके उसका उपभोग करते हैं उन नीच जनोंका संसारसे उद्धार इस प्रकार नहीं हो सकता है जिस प्रकार कि समुद्रसे हीन पुरुषोंका उद्धार नहीं हो सकता है। जिनलिंगके धारक यथार्थ योगी संयमकी वृद्धिके लिए दूसरोंके घरपर जाकर श्रावकोंके द्वारा हाथोंरूप पात्रमें दिये प्रासुक-निर्दोष-आहारको ग्रहण किया करते हैं ॥४८-५०॥ देवताके इन वचनोंको सुनकर उक्त वेषधारी राजाओंने व्याकुल होते हुए उस दिगम्बर साधुके वेषको छोड़कर कौपीन (लंगोटो) को धारण कर लिया। फिर वे पानीको ऐसे पीने लगे जैसे मानो बलवान् व भयानक कालकूट विषको ही पी रहे हों ॥५१॥ । उनमें कुछ लोग भूख और प्याससे पीड़ित होकर लज्जाको छोड़ते हुए अपने अपने घरको वापस चले गये। ठीक है-प्राणी तभी तक लज्जा करते हैं जबतक कि मन दूषित नहीं होता है-वह निराकुल रहता है ॥५२॥ दूसरे लोगोंने विचार किया कि यदि हम आदिनाथ भगवान्को यहाँ वनके बीच में छोड़कर जाते हैं तो उस समय राजा भरत क्रुद्ध होकर हम लोगोंकी आजीविकाको नष्ट कर देगा। इसलिए यहीं बनमें स्थित रहकर स्वामीकी सेवा करते रहना कहीं अच्छा है। ऐसा विचार करके वे कन्द-मूलादिका भक्षण करते हुए वहीं वनमें स्थित रह गये ॥५३-५४॥ ४८) ब प्रोक्तो। ४९) ड इ नोत्तीरो; अ नोचानामिव वारिधेः । ५०) इपात्रम्; अ परवेश्मसु । ५२) म हत्वा लज्जां गृहं कृत्वा। ५३) अ गत्वा for हित्वा; तत् for नः । ५४) इ विदधाम ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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