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________________ धर्मपरीक्षा-१८ ३०१ कल्याणाङ्गो महासत्त्वो नरामरनिषेवितः । ऊर्बीभूय ततस्तस्थौ सुवर्णाद्रिरिव स्थिरः ॥४२ कृत्वा पटलिकान्तःस्थान् जिनेन्द्रस्य शिरोरुहान् । आरोप्य मस्तके शक्रश्चिक्षेप क्षीरसागरे ॥४३ प्रकृष्टोऽत्रे कृतो योगो यतस्त्यागो जिनेशिना। शकटामुखमुद्यानं प्रयागाख्यां गतं ततः॥४४ चत्वार्यमा सहस्राणि भूपा जातास्तपोधनाः । सद्भिराचरितं कायं समस्तः श्रयते जनः ॥४५ षण्मासाम्यन्तरे भग्नाः सर्वे ते नृपपुङ्गवाः । दीनचित्तैरविज्ञानैः सह्यन्ते न परोषहाः॥४६ फलान्यत्तुं प्रवृत्तास्ते पयः पातु दिगम्बराः । तन्नास्ति क्रियते यन्न बुभुक्षाक्षीणकुक्षिभिः ॥४७ ४३) १. रत्नपेटिकान्तःस्थान् । ४४) १. उद्याने। ४५) १. जिनेन सह। तत्पश्चात् मंगलमय शरीरसे संयुक्त, अतिशय बलवान् तथा मनुष्य एवं देवोंसे आराधित वे भगवान् सुमेरुके समान स्थिर होकर ऊर्वीभूत स्थित हुए-कायोत्सर्गसे ध्यानमें लीन हो गये ॥४॥ उस समय सौधर्म इन्द्रने आदि जिनेन्द्र के उन बालोंको एक पेटीके भीतर अवस्थित करके अपने मस्तक पर रखा और जाकर क्षीर समुद्रमें डाल दिया ॥४३॥ भगवान् आदि जिनेन्द्रने उस वनमें चूंकि महान त्याग व उत्कृष्ट ध्यान किया था, इसीलिए तबसे वह वन 'प्रयाग' के नामसे प्रसिद्ध हो गया ॥४४॥ भगवान् आदि जिनेन्द्रके दीक्षित होनेके साथ चार हजार अन्य राजा भी दीक्षित हुए थे । सो ठीक भी है-सत्पुरुष जिस कार्यका अनुष्ठान करते हैं उसका आश्रय सब ही अन्य जन किया करते हैं ॥४५॥ परन्तु वे सब राजा छह महीनेके ही भीतर उस संयमसे भ्रष्ट हो गये थे । ठीक हैअज्ञानी जन मानसिक दुर्बलताके कारण परीषहोंको नहीं सह सकते हैं ॥४६॥ तब वे निर्ग्रन्थके वेषमें स्थित रहकर फलोंके खाने और पानीके पीनेमें प्रवृत्त हो गये। ठीक है-जिनका उदर भूखसे कृश हो रहा है वे बुमुक्षित प्राणी ऐसा कोई जघन्य कार्य नहीं है जिसे न करते हों-भूखा प्राणी हेयाहेयका विचार न करके कुछ भी खानेमें प्रवृत्त हो जाता है ॥४७॥ ४२) भ ऊर्वीभूतस्ततः । ४३) पटलिकान्तस्तान् । ४४) अ इ प्रयोगाख्यं, ड प्रयोगाख्याम् । ४६) इरवज्ञानः, सह्यते।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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