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________________ धर्मपरीक्षा-१८ २९९ न शक्यते विना स्थातुं येनेहैकमपि क्षणम् । वियोगः सह्यते ऽस्यापि चित्रांशुरिव तापकः ॥३० । क्षीणोऽपि वर्धते चन्द्रो दिनमेति पुनर्गतम्। . नदीतोयमिवातीतं यौवनं न निवर्तते ॥३१ बन्धूनामिह संयोगः पन्थानामिव संगमः। सुहृदां जायते स्नेहः प्रकाश इव विद्युताम् ॥३२ पुत्रमित्रगृहद्रव्यधनधान्यादिसंपदाम् । प्राप्तिः स्वप्नोपलब्धेव न स्थैर्यमवलम्बते ॥३३ यदर्थमज्यंते द्रव्यं कृत्वा पातकमूजितम् । शरदभ्रमिव क्षिप्रं जीवितं तत्पलायते ॥३४ संसारे दृश्यते देही नासौ दुःखनिधानके। , . . गोचरीक्रियते' यो न मृत्युना विश्वगामिना ॥३५ ३०) १. अग्निः । ३५) १. न गृह्यते । २. जीवः । प्राणी जिस अभीष्ट वस्तुके बिना यहाँ एक क्षण भी नहीं रह सकता है वह अग्निके समान सन्तापजनक उसके वियोगको भी सहता है ॥३०॥ हानिको प्राप्त हुआ भी चन्द्रमा पुनः वृद्धिको प्राप्त होता है, तथा बीता हुआ भी दिन फिरसे आकर प्राप्त होता है; परन्तु गया हुआ यौवन (जवानी) नदीके पानीके समान फिरसे नहीं प्राप्त हो सकता है ॥३१॥ . जिस प्रकार प्रवासमें कुछ थोड़े-से समयके लिए पथिकोंका संयोग हुआ करता है उसी प्रकार यहाँ संसारमें-बन्धु-जनोंका भी कुछ थोड़े-से ही समयके लिए संयोग रहता है, तत्पश्चात् उनका वियोग नियमसे ही हुआ करता है । तथा जिस प्रकार बिजलीका प्रकाश क्षण-भरके लिए ही होता है उसी प्रकार मित्रोंका स्नेह भी क्षणिक ही है ॥३२॥ .. जिस प्रकार कभी-कभी स्वप्नमें अनेक प्रकारके अभीष्ट पदार्थोकी प्राप्ति देखी जाती है, परन्तु जागनेपर कुछ भी नहीं रहता है; उसी प्रकार संसारमें पुत्र, मित्र, गृह और धनधान्यादि. सम्पदाओंकी भी प्राप्ति कुछ ही समयके लिए हुआ करती है; उनमें से कोई भी सदा स्थिर रहनेवाला नहीं है ॥३३॥ जिस जीवनके लिए प्राणी महान् पापको करके धनका उपार्जन किया करता है वह जीवन शरद् ऋतुके मेघके समान शीघ्र ही नष्ट हो जाता है-आयुके समाप्त होनेपर मरण अनिवार्य होता है ॥३४॥ दुखके स्थानभूत इस संसारमें वह कोई प्राणी नहीं देखा जाता है जो कि समस्त लोकमें विचरण करनेवाली मृत्युका ग्रास न बनता हो-इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती आदि सब ही आयुके क्षीण होनेपर मरणको प्राप्त हुआ ही करते हैं ॥३५॥ ३१) ब क ड इ क्षीणो वि'; अ ड इ न विवर्तते । ३२) अ ब संगमे, क संगमम् । ३४) भ इ मर्यते । ३५) ब निदानके।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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