________________
२९२
अमितगतिविरचिता मद्यमांसवनिताङ्गसंगिनो धार्मिका यदि भवन्ति रागिणः।। शौण्डिखट्टिकविटोस्तदा स्फुटं यान्ति नाकवसति निराकुलाः ॥९६ क्रोधलोभभयमोहमर्दिताः पुत्रदारधनमन्दिरादराः। धर्मसंयमवमैरपाकृताः पातयन्ति यतयो भवाम्बुधौ ॥९७ देवता विविधदोषदूषिताः संगभङ्गकलितास्तपोधनाः । प्राणिहिंसनपरायणो वृषः सेविता लघु नयन्ति संसृतिम् ॥९८ जन्ममृत्युबहुमार्गसंकुले' द्वेषरागमदमत्सराकुले । दुर्लभः शिवपथो जने यतस्त्वं सदा भव परीक्षकस्ततः॥९९ भवान्तकजरोज्झितास्त्रिदशवन्दिता देवता निराकृतपरिग्रहस्मरहषीकदो यतिः ।
९६) १. मद्यपानिनः खाटकादयः। ९७) १. रहिताः। ९८) १. परिग्रहसमूहव्याप्ताः । ९९) १. संसारे।
जो रागके वशीभूत होकर मद्यका पान करते हैं, मांसके भक्षणमें रत हैं और स्त्रीके शरीरकी संगतिमें आसक्त हैं वे यदि धर्मात्मा हो सकते हैं तो फिर मद्यका विक्रय करनेवाले, कसाई और व्यभिचारी जन भी निश्चिन्त होकर स्पष्टतया स्वर्गपुरीको जा सकते हैं ।।९६॥
जो साधु क्रोध, लोभ, भय और मोहसे पीड़ित होकर धर्म, संयम व इन्द्रियनिग्रह आदिसे विमुख होते हुए पुत्र, स्त्री, धन एवं गृह आदिमें अनुराग रखते हैं वे अपने भक्त जनोंको और स्वयं अपनेआपको भी संसाररूप समुद्र में गिराते हैं ॥१७॥
अनेक दोषोंसे दूषित देवताओं, परिग्रहके विकल्पसे संयुक्त तपस्वियों और प्राणिहिंसामें तत्पर ऐसे धर्मकी आराधनासे प्राणी शीघ्र ही संसारमें परिभ्रमण किया करते हैं ॥९८॥ ____ जो प्राणी संसारपरिभ्रमणकी उत्पत्तिके बहुत-से मार्गोंसे परिपूर्ण-जन्मपरम्पराके बढ़ानेवाले साधनोंमें व्यापृत-तथा द्वेष, राग, मद और मात्सर्य भावसे व्याकुल रहता है उसे चूंकि मोक्षमार्ग दुर्लभ होता है; अतएव हे मित्र ! तुम सदा परीक्षक होओ-निरन्तर यथार्थ और अयथार्थ देव, गुरु एवं धर्म आदिका परीक्षण करके जो यथार्थ प्रतीत हों उनका आराधन करो ।।९९॥ - जो जन्म, मरण व जरासे रहित होकर देवोंके द्वारा वन्दित हो वह देव; जो परिप्रहसे रहित होकर काम और इन्द्रियोंके अभिमानको चूर्ण करनेवाला हो वह गुरु; तथा जो
९७) ब इ मद for भय; अ वर्जिताः for मर्दिताः; अ संयमद्रुमै ....रपाकृतास्तापयन्ति । ९९) अ व जन्मजाति; ड शिवपथा।