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________________ भर्मपरीक्षा-१७ द्वेषरागमदमोहविद्विषो निजिताखिलनरामरेग्धराः। कुर्वते वपुषि यस्य नास्पदं भास्करस्य तिमिरोत्करा इव ९१ केवलेन गलिताखिलैनसा' यो ऽवगच्छति' चराचरस्थितिम् । तं त्रिलोकमतमाप्तमुत्तमाः सिद्धिसाधकमुपासते जिनम् ॥१२ विद्धसर्वनरखेचरामरैर्ये मनोभवशरै ताडिताः। ते भवन्ति यतयो जितेन्द्रिया जन्मपाल्पनिकतनाशयाः ॥९३ प्राणिपालदृढमूलबन्धनः सत्यशौचशमशोलपल्लवः। इष्टशर्मफलजालमुल्बणं पेशल' फलति धर्मपादपः ॥९४ बन्धमोक्षविधयः सकारणा युक्तितः सकलबाघजिताः । येन सिद्धिपथदर्शनोविताः शास्त्रमेतदवयन्ति' पण्डिताः ॥१५ ९२) १. ज्ञानावरणादिना। २. जानाति । ९४) १. मनोज्ञम् । ९५) १. पठ्यन्ति। जिस प्रकार सूर्यके शरीरमें-उसके पासमें-कभी अन्धकारका समूह नहीं रहता है उसी प्रकार जिसके शरीरमें समस्त नरेश्वरों-राजा महाराजा आदि-और अमरेश्वरोंइन्द्रादि-को पराजित करनेवाले द्वेष, राग एवं मोहरूप शत्रु निवास नहीं करते हैं तथा जो समस्त आवरणसे रहित केवलज्ञानके द्वारा चराचर लोकके स्वरूपको जानता-देखता है वह कर्म-शत्रुओंका विजेता जिन-अरिहन्त-ही यथार्थ आप्त (देव) होकर सिद्धिका शासकमोक्षमार्गका प्रणेता-हो सकता है। इसीलिए वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशक होनेसे उत्तम जन उसीकी आराधना किया करते हैं व वही तीनों लोकोंके द्वारा आप्त माना भी गया है ।।९१-९२॥ जो महात्मा समस्त मनुष्य, विद्याधर और देवोंको भी वेधनेवाले कामके बाणोंसे आहत नहीं किये गये हैं-उस कामके वशीभूत नहीं हुए हैं तथा जो संसाररूप वृक्षके काटनेके अभिप्रायसे-मुक्तिप्राप्तिकी अभिलाषासे-इन्द्रियविषयोंसे सर्वथा विमुख हो चुके हैं वे महर्षि ही यथार्थ गुरु हो सकते हैं ॥१३॥ ___जिस धर्मरूप वृक्षकी जड़ उसे स्थिर रखनेवाली प्राणिरक्षा (संयम) है तथा सत्य, शौच, समता व शील ही जिसके पत्ते हैं; वही धर्मरूप वृक्ष स्पष्टतया अभीष्ट सुखरूप मनोहर फूलको दे सकता है ॥१४॥ जिसके द्वारा युक्तिपूर्वक कारण सहित बन्ध और मोक्षकी विधियाँ समस्त बाधाओंसे रहित होकर मुक्तिमार्गके दिखलाने में प्रयोजक कही गयी हैं उसे विद्वान् शास्त्र समझते हैं। अभिप्राय यह है कि जिसके अभ्याससे मोक्षके साधनभूत व्रत-संयमादिका परिज्ञान होकर प्राणीकी मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति होती है वही यथार्थ शास्त्र कहा जा सकता है ।।९५॥ ९२) अ गदिताखिल ; * °स्थितम्; ६ सिद्धसाधक । ९३) क र निकर्तनाशयः। ९५) भ विषये for विषयः; अब सकलबोध ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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