________________
धर्मपरीक्षा-१७
२८३
दुग्धाम्भसोयथा भेदो विधानेन विधीयते। तथात्मदेहयोः प्राज्ञरात्मतत्त्वविचक्षणः ॥४६ बन्धमोक्षावितत्त्वानामभावः क्रियते यकैः । अविश्वदृश्वभिः सद्भिस्तेभ्यो धृष्टो ऽस्ति कः परः ॥४७ कर्मभिर्बध्यते नात्मा सर्वथा यदि सर्वदा। संसारसागरे घोरे बंभ्रमीति तदा कथम् ॥४८ सदा नित्यस्य शुद्धस्य ज्ञानिनः परमात्मनः। व्यवस्थितिः कुतो देहे दुर्गन्धामध्यमन्दिरे ॥४९ सुखदुःखादिसंवित्तियदि देहस्य जायते। निर्जीवस्य तदा नूनं भवन्ती केन वार्यते ॥५०
४६) १. क्रियते । ४७) १. यैः । २. अभिभवः ।
जिस प्रकार मिले हुए दूध और पानीमें विधिपूर्वक भेद किया जाता है-हंस उन दोनोंको पृथक्-पृथक् कर देता है-उसी प्रकार वस्तुस्वरूपके ज्ञाता विद्वान् अभिन्न दिखनेवाले आत्मा और शरीरमें-से आत्माको पृथक् कर देते हैं ॥४६॥
जो लोग विश्वके ज्ञाता द्रष्टा न होकर भी-अल्पज्ञ होते हुए भी-बन्ध-मोक्षादि तत्त्वोंका अभाव करते हैं उनसे धीठ और दूसरा कौन हो सकता है-वे अतिशय निर्लज्ज हैं ।। ४७॥
यदि प्राणी सदा काल ही कोंसे किसी प्रकार सम्बद्ध नहीं होता है तो फिर वह इस भयानक संसाररूप समुद्रमें कब और कैसे घूम सकता था ? अभिप्राय यह है कि प्राणीका जो संसारमें परिभ्रमण हो रहा है वह कार्य है जो अकारण नहीं हो सकता है। अतएव इस संसारपरिभ्रमणरूप हेतुसे उसकी कर्मबद्धता निश्चित सिद्ध होती है ॥४८।।
यदि आत्मा सर्वथा नित्य, सदा शुद्ध, ज्ञानी और परमात्मा-स्वरूप होकर उस कर्मबन्धनसे एकान्ततः रहित होता तो फिर वह दुर्गन्धयुक्त इस अपवित्र शरीरके भीतर कैसे अवस्थित रह सकता था ? नहीं रह सकता था-इसीसे सिद्ध है कि वह स्वभावतः शुद्ध-बुद्ध होकर भी पर्यायस्वरूपसे चूँकि अशुद्ध व अल्पज्ञ है, अतएव वह कर्मसे सम्बद्ध है ।।४९॥
यदि सुख-दुख आदिका संवेदन शरीरको-प्रकृतिको-होता है तो फिर वह निर्जीव (मृत) शरीरके क्यों नहीं होता है व उसे उसके होनेसे कौन रोक सकता है ? अभिप्राय यह है कि सुख-दुख आदिके वेदनको जड़ शरीरमें स्वीकार करनेपर उसका प्रसंग मृत शरीरमें भी अनिवार्य स्वरूपसे प्राप्त होगा ॥५०॥
४७) अ बन्धो मोक्षादि'; ड कं परम् । ४८) अ कदा for तदा ।