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________________ धर्मपरीक्षा - १५ इदं वचनमाकण्यं क्षितिदेवा बभाषिरे । असत्यमीदृशं भद्र व्रतस्थो भाषसे कथम् ॥८९ एकीकृत्य ध्रुवं स्रष्टा त्रैलोक्यासत्यवादिनः । त्वमकार्यन्यथेदृक्षः किमसत्यो न दृश्यते ॥९० निशम्य तेषां वचनं मनीषी जगाद खेटाधिपतेस्तेनजः । शिविप्रा भवतां पुराणे न भूरिशः किं वितथानि सन्ति ॥९१ दोषं परेषामखिलो ऽपि लोको विलोकते स्वस्य न कोऽपि नूनम् । निरीक्षते चन्द्रमसः कलङ्कं न कज्जलं लोचनमात्मसंस्थम् ॥९२ बभाषिरे वेदविदां वरिष्ठा यदीदृशं भद्र पुराणमध्ये | त्वयेक्षितं ब्रूहि तदा विशङ्कं वयं त्यजामो वितथं विचार्य ॥९३ श्रुत्वेत्यवादी ज्जित शत्रुसूनुजिनेन्द्र वाक्योदकधौतबुद्धिः । ज्ञात्वा द्विजात्यक्ष्य यद्यसत्यं तदा पुराणार्थमहं ब्रवीमि ॥९४ ९०) १. पुरुषो ऽपरः । ९१) १. क जितशत्रोः । २. क वचनानि । ३. असत्यानि । ९४) १. त्यजथ । २५५ मनोवेगके इस कथनको सुनकर ब्राह्मण बोले कि हे भद्र! तुम व्रतमें स्थित रहकर इस प्रकारका असत्य भाषण कैसे करते हो ? ॥ ८९ ॥ हमें ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्माने निश्चित ही तीनों लोकोंके असत्यभाषियोंको एकत्रित करके तुम्हें रचा है। कारण कि यदि ऐसा न होता तो फिर इस प्रकारका असत्यभाषी अन्य क्यों नहीं देखा जाता है ? और भी ऐसे असत्यभाषी देखे जाने चाहिए थे ॥९०॥ ब्राह्मणोंके इस भाषणको सुनकर वह विद्याधर राजाका बुद्धिमान् पुत्र बोला कि हे ब्राह्मणो ! आप लोगोंके पुराणोंमें क्या इस प्रकारके बहुतसे असत्य नहीं हैं ? ॥९१॥ दूसरोंके दोषको तो सब ही जन देखा करते हैं, परन्तु अपने दोषको निश्चयसे कोई भी नहीं देखता है । ठीक है - चन्द्रमाके कलंकको तो सभी जन देखते हैं, परन्तु अपने आप में स्थित काजलयुक्त नेत्रको कोई भी नहीं देखता है ||१२|| मनोवेगके इस आरोपको सुनकर वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ वे ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! यदि तुमने हमारे पुराण में इस प्रकारका असत्य देखा है तो तुम उसे निर्भय होकर कहो, तब हम विचार करके उस असत्यको छोड़ देंगे ||१३|| ब्राह्मणोंके इन वाक्योंको सुनकर जिसकी बुद्धि जिनेन्द्र भगवान् के वचनरूप जलके द्वारा घुल चुकी थी ऐसा वह जितशत्रुका पुत्र मनोवेग बोला कि हे ब्राह्मणो ! यदि आप जान करके उस असत्यको छोड़ देंगे तो फिर मैं पुराणके उस वृत्तको कहता हूँ ॥९४॥ ९०) इत्वमाकार्यं । ९१ ) अ क वितथा न । ९३ ) अ ब विशको ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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