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धर्मपरीक्षा
उल्लिखित परीक्षणसे इस सम्भावनाका पर्याप्त निरसन हो जाता है कि अमितगतिने अकेली अपभ्रंश रचना के आधारपर ही अपनी रचनाका निर्माण किया है। इसके सिवाय यत्र तत्र हमें कुछ विचित्रताएँ ही मालूम होती हैं । हरिषेण ने ( १-८ में ) विजयपुरी ( अपभ्रंश, विजयउरी ) नगरीका नाम दिया है, लेकिन अमितगतिने उसी वाक्य समूहमें उसका नाम प्रियपुरी रखा है। दूसरे प्रकरण में हरिषेणने ( २- ७ में ) मंगलउ ग्रामका नाम दिया है, जबकि अमितगतिने ( ४, ८ में ) उसे संगालो पढ़ा है । मैं नीचे उन उद्धरणोंको दे रहा हूँ । मुझे तो मालूम होता है कि अमितगति और हरिषेणके द्वारा मूल प्राकृतके उद्धरण थोड़े-से हेरफेर के साथ समझ लिये गये है ।
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हरिषेणकृत धर्मपरीक्षा २, ७
तो मणवेउ भणइ सुक्साल, अस्थि गामु मलए मंगालउ । भमरु णाम तहि विसर गिवद्द, तामु पुत्तु णामे महुयरगह ।
अमितगति धर्मपरीक्षा ४ ७-८
उवाचेति मनोवेगः श्रूयतां कथयामि वः । देशो मलय देशोऽस्ति संगालो गलितासुखः । तत्र गृहपतेः पुत्रो नाम्ना मधुकरोऽभवत् ॥
उपरिलिखित तर्कोको ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष युक्तिसंगत होगा कि हरिषेण और अमितगति दोनों हीने अपने सामने किसी उपलब्ध मूलप्राकृत रचनाके सहारे ही अपनी रचनाका निर्माण किया है और जहाँ तक उपलब्ध तथ्योंका सम्बन्ध है यह रचना जयरामको प्राकृत धर्मपरीक्षा रही होगी। जहाँ हरिषेणने अपनी रचनाके मूलस्रोतका स्पष्ट संकेत किया है, वहाँ अमितगति उस सम्बन्ध में बिलकुल मौन हैं। यदि कुछ साधारण उद्धरण, जैसे पैराग्राफ नं. सी में नोट किये गये हैं खोज निकाले जायें तो इसका यही अर्थ होगा कि वे किसी साधारण मूलस्रोतसे ज्योंके त्यों ले लिये गये हैं । चूंकि अमितगति अपने मूलस्रोतके बारेमें बिलकुल मौन हैं इसलिए हम सिद्धान्तरूपसे नहीं कह सकते हैं कि अमितगतिने अपनी पूर्ववर्ती मूल प्राकृत रचनाके सिवाय प्रस्तुत अपभ्रंश रचनाका भी उपयोग किया है।
८. धर्मपरीक्षाका प्रधान भाग पौराणिक कथाओंके अविश्वसनीय और असम्बद्ध चरित्रचित्रणसे भरा पड़ा है । और यह युक्त है कि पुराणों थौर स्मृतियोंके पद्य पूर्वपक्षके रूप में उद्धृत किये जाते । उदाहरण के लिए जिस तरह हरिभद्रने अपने प्राकृत धूर्ताख्यान में संस्कृत पद्योंको उद्धृत किया है । इस बातकी पूर्ण सम्भावना है कि जयरामने भी अपनी धर्मपरीक्षा में यही किया होगा। हरिषेणकी धर्मपरीक्षामें भी एक दर्जन से अधिक संस्कृतके उद्धरण हैं और तुलना में अमितगतिकी धर्मपरीक्षाके उद्धरणोंकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान् हैं, क्योंकि अमितगतिने इन पद्योंका मनवाही स्वतन्त्रताके साथ उपयोग किया है। एक प्राकृत और अपकाशका लेखक उन्हें उसी तरह रखता, जैसे कि वे परम्परासे चले आ रहे थे। लेकिन जो व्यक्ति अपनी रचना संस्कृतमें कर रहा है वह उन्हें अपनी रचनाका ही एक अंग बनाने की दृष्टिसे उनमें यत्र-तत्र परिवर्तन कर सकता है। अमितगतिने इन पथको 'उक्तं च' आदिके साथ नहीं लिखा है। हम नीचे हरिषेणके द्वारा उद्धृत किये गये ये पद्म दे रहे हैं और साथमें अमितगति पाठान्तर भी इससे मूलका पता लगाना सुलभ होगा। यह ध्यान देनेकी बात है कि इनमें के कुछ पद सोमदेव के यशस्तिलम् (ई.स. ९५९) में भी उद्धरणके रूपमें विद्यमान हैं ।
[१] हरिषेणकृत धर्मपरीक्षा ४, १ पु. २२ नं. १००९ वाली हस्तलिखित प्रति तथा चोक्तम्