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________________ २३३ धर्मपरीक्षा-१४ तेदाधावि कथं मातुर्गर्भस्थेनोभिमन्युना। कथं मया न भूदेवास्तापसानां वचः पुनः॥६७ मयेने मुनिना धौते स्वकोपोने सरोवरे। पीतः शुक्ररसोऽभ्येत्यै मण्डूक्या सलिलस्थया ॥६८ तदीयपानतो गर्भ संपन्ने सति दर्दुरी। सासूत सुन्दरी कन्यां संपूर्णे समये सति ॥६९ न जातेरस्मदीयाया योग्येयं शुभलक्षणा। इति ज्ञात्वा तया क्षिप्ता मण्डूक्या नलिनीदले ॥७० एकदा यतिना दृष्ट्वा सा सरोवरमीयुषा। स्वीकृता स्नेहतो ज्ञात्वा स्वबीजबलसंभवा ॥७१ उपार्यविविधस्तेने सा प्रपाल्य विधिता। अपत्यपालने सर्वो' निसर्गेण प्रवर्तते ॥७२ ६७) १. कथनम् । २. क पुत्रेण । ६८) १. नाम । २. एत्य । ७२) १. मयेन । २. जनः प्राणी। भीतर प्रवेश करनेकी विधिको समझाया था। उसे उस समय माताके गर्भ में स्थित अभिमन्यने कैसे सन लिया था और हे ब्राह्मणो! मैं माताके गर्भमें स्थित रहकर तापसोंके कथनको क्यों नहीं सुन सकता था-जिस प्रकार गर्भस्थ अभिमन्युने चक्रव्यूहके वृत्तको सुन लिया था उसी प्रकार मैंने भी माताके गर्भ में रहते हुए तापसोंके कथनको सुन लिया था ॥६६-६७|| मय नामक ऋषिने जब अपने लंगोटको तालाबमें धोया था तब उसमेंसे जो वीर्यका अंश प्रवाहित हुआ उसे पानीमें स्थित एक मेंढकीने आकर पी लिया था। उसके पीनेसे उस मेंढकीके गर्भ रह गया और तब उस सतीने समयके पूर्ण हो जानेपर एक सुन्दर कन्याको जन्म दिया था ।।६८-६९॥ पश्चात् उस मेंढकीने यह जानकर कि यह उत्तम लक्षणोंवाली कन्या हमारी जातिके योग्य नहीं है, उसे एक कमलिनीके पत्तेपर रख दिया ॥७०।। ___एक समय मय ऋषि उस तालाबके ऊपर पुनः पहुँचे। तब वहाँ उन्होंने उसे देखा और अपने वीर्यके प्रभावसे उत्पन्न हुई जानकर स्नेहके वश ग्रहण कर लिया ॥७१॥ तत्पश्चात् उन्होंने नाना प्रकारके उपायों द्वारा उसका पालन-पोषण कर वृद्धिंगत किया । सो ठीक भी है, क्योंकि, अपनी सन्तानके परिपालनमें सब ही जन स्वभावतः प्रवृत्त हुआ करते हैं ॥७२॥ ५७) क ड तदश्रावि। ६८) अ इ यमेन for मयेन; ड सलिलेस्थया। ६९) व सुन्दराम् । ७०) क इति मत्वा । ७१) क इ स्ववीर्य । ३०
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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