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अमितगतिविरचिता त्वमप्येहि सहास्माभिर्मूथा मात्र बुभुक्षया । किंचित् कुरूपकारं वा प्रणिगद्येति ते ययुः ॥२० मया श्रुत्वा वचस्तेषां मातृग निवासिना। विचिन्तितमिदं चित्ते क्षुधाचकितचेतसा ॥२१ संपत्स्यते ऽत्र दुभिक्षं वर्षद्वादशकं यदि । कि क्षुधा म्रियमाणोऽहं करिष्ये निर्गतस्तदा ॥२२ चिन्तयित्वेति वर्षाणि गर्भ ऽहं द्वादश स्थितः। अशनायाभयग्रस्तः क देही नावतिष्ठते ॥२३ आजग्मुस्तापसा भूयस्ते गर्भमभि तस्थुषि। मयि मातामहावासंदुभिक्षस्य व्यतिक्रमे ॥२४ प्रणम्य तापसाः पुष्टा ममार्येणाचचक्षिरे। सुभिक्षं भद्र संपन्न प्रस्थिता विषयं निजम् ॥२५ मयि श्रुत्वा वचस्तेषां गर्भतो निर्यियासति ।
अजनिष्ट सवित्री मे वेदनाक्रान्तविग्रहा ॥२६ २०) १. मरिष्यति। २३) १. क्षुत्पीडितः। २४) १. स्थितवति; क तिष्ठति सति । २. मातामहगृहे । २६) १. निर्गतस्य वाञ्छया । भूखसे पीड़ित होकर मत मरो, अथवा कुछ उपकार करो; ऐसा कहकर वे सब तापस वहाँसे चले गये ।।१९-२०॥
माताके गर्भ में स्थित रहते हुए जब मैंने तापसोंके इस कथनको सुना तब मैंने मनमें भूखसे भयभीत होकर चित्तमें यह विचार किया कि यदि यहाँ बारह वर्ष तक दुष्काल रहेगा तो वैसी अवस्थामें गर्भसे निकलकर भूखकी बाधासे मरणको प्राप्त होता हुआ मैं क्या करूँगा-इससे तो कहीं गर्भमें स्थित रहना ही ठीक होगा ।।२१-२२।।।
यही सोचकर मैं बारह वर्ष तक उस गर्भ में ही स्थित रहा। सो ठीक भी है-भूखके भयसे पीड़ित प्राणी भला कहाँपर नहीं अवस्थित होता है ? अर्थात् वह भूखके भयसे व्याकुल होकर उत्तम व निकृष्ट किसी भी स्थानमें स्थित होकर रहता है ॥२३॥
इस प्रकार मेरे गर्भस्थ रहते हुए उस दुष्कालके बीत जानेपर वे तापस वापस आकर फिरसे मेरे नानाके घरपर आये ॥२४॥
र तब मेरे नानाके पूछनेपर वे तापस बोले कि हे भद्र ! अब सुभिक्ष हो चुका है, इसीलिए हम अपने देशमें आ गये हैं ॥२५॥
__उनके वचनोंको सुनकर जब मैं गर्भसे निकलनेका इच्छुक होकर निकलने लगा तब माताके शरीरमें बहुत पीड़ा हुई ॥२६॥ २३) अ त्रस्त: : for ग्रस्तः । २४) इ मम for मयि; अ ब दुष्कालस्य । २५) अ मार्येणादिचिक्षरे, ब मार्येण वक्षिरे, क पृष्टा आर्येणाथाचचक्षिरे, ड आर्येणाथ ववक्षिरे। २६) अ ड इनिर्यया सति ।