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अमितगतिविरचिता
खेचरेण ततो ऽवाचि तापसाकारधारिणा । कथयामि यथावृत्तं युष्मभ्यो ऽहं परं चके ॥७ युक्ते ऽपि भाषिते विप्राः कुर्वते निविचारकाः । आरोप्ययुक्ततां दुष्टा रभसोपद्रवं परम् ॥८ सूत्रकण्ठास्ततो ऽवोचन् वद भद्र यथोचितम् । सर्वे विचारका विप्रा युक्तपक्षानुरागिणः ॥९ तदीयं वचनं श्रुत्वा जगाव खगनन्दनः । निगदामि तदाभीष्टं यदि यूयं विचारकाः ॥ १० बृहत्कुमारिका माता साकेते नगरे मम । दत्ता स्वकीयतातेन' मदीयजनकाय सा ॥११ श्रुत्वा तूर्यवं हस्ती कृतान्त इव दारुणः । मत्तो भवत्वागतः स्तम्भं विवाहसमये तयोः ॥ १२ ततः पलायितो लोकः समस्तो ऽपि विशोदिशः । विवाहकारणं हित्वा स्थिरत्वं क्व महामये ॥१३
७) १. बिभेमि ।
१०) १. क मनोवेगः ।
११) १. अयोध्यायाम् । २. मम सावित्रीपित्रा ।
१२) १. क भयानकः ।
वृत्तको बतलाओ । कारण कि जो यथार्थ स्वरूपको पूछते हैं उनके साथ परिहास करना उचित नहीं माना जाता है || ६ ||
यह सुनकर तापसकी आकृतिको धारण करनेवाला वह मनोवेग विद्याधर बोला कि मैं अपनी कथाको कह तो सकता हूँ, परन्तु उसे कहते हुए मैं आप लोगोंसे डरता हूँ ॥७॥ हे विप्रो ! इसका कारण यह है कि योग्य भाषण करनेपर भी अविवेकी विषयमें अयोग्यपनेका आरोप लगाकर शीघ्र ही उपद्रव कर बैठते हैं ||८||
दुष्ट जन उसके इसपर ब्राह्मण बोले कि हे भद्र पुरुष ! तुम निर्भय होकर अपने यथायोग्य वृत्तान्तको कहो, हम सब ब्राह्मण विचारशील होते हुए योग्य पक्षमें अनुराग करनेवाले हैं ||९||
ब्राह्मणोंके इस कथनको सुनकर वह विद्याधरकुमार बोला कि यदि आप सब विचारशील हैं तो फिर मैं अपने अभीष्ट वृत्तान्तको कहता हूँ ॥१०॥
अयोध्या नगरी मेरी बृहत्कुमारिका माता है । वह अपने पिता - मेरे नाना - के द्वारा मेरे पिताको दी गयी थी ॥ ११ ॥
उन दोनोंके विवाहके अवसरपर जो बाजोंका शब्द हुआ था उसे सुनकर यमराजके समान भयानक एक उन्मत्त हाथी स्तम्भको उखाड़कर वहाँ आ पहुँचा ॥ १२ ॥
उसको देखकर अभ्यागत सब ही जन विवाह के प्रयोजनको छोड़कर दसों दिशाओं में ७) अ कथावृत्तम्; ब युष्मत्तो ऽहम् । ८) क इ कुर्वन्ति; क ड इ युक्तिताम् । १२ ) व गजस्तम्भम् । १३) अ दिशो दिशं द्द दिशो दश; अ क विवाहकरणम् ।