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________________ [१४] तवान्यदपि मित्राहं निगदामि कुतूहलम् । विनिगद्येत्युषे रूपं मुमोच खचराङ्गजः ॥१ ततः पुष्पपुरं भूयो विवेशोत्तरया दिशा। साधं पवनवेगेन गृहीत्वा तापसाकृतिम् ॥२ स घण्टा भेरिमाताडच निविष्टो हेमविष्टरे। आगत्य माहनाः प्राहुरागतस्तापसः कुतः ॥३ कि त्वं व्याकरणं वेत्सि किं वा तक सविस्तरम् । करोषि ब्राह्मणैः साधं किं वादं शास्त्रपारगैः ॥४ तेनोक्तमहमायातो भूदेवा ग्रामतो ऽमुतः। वेनि व्याकरणं तकं वादं वापि न किंचन ॥५ विप्राः प्राहुर्वद क्रीडां विमुच्य त्वं यथोचितम् । स्वरूपपृच्छिभिः साधं क्रीडां कतुं न युज्यते ॥६ ३) १. विप्राः। ६) १. यथायोग्यम् । तत्पश्चात् मनोवेग पवनवेगसे बोला कि हे मित्र! मैं अब तुझे और भी कुतूहल कहता हूँ-आश्चर्यजनक वृत्तको दिखलाता हूँ, यह कहते हुए उस विद्याधरके पुत्रने पूर्व में जिस मुनिके वेषको धारण किया था उसे छोड़ दिया ॥१॥ ___ बादमें वह पवनवेगके साथ तापसके वेषको ग्रहण करके फिरसे भी उसी पाटलीपुत्र नगरके भीतर उत्तर दिशाकी ओरसे प्रविष्ट हुआ ॥२॥ ____उसके भीतर जाकर वह घण्टा और भेरीको बजाता हुआ सुवर्णमय सिंहासनके ऊपर जा बैठा। तब घण्टा और भेरीके शब्दको सुनकर ब्राह्मण वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने उससे पूछा कि हे तापस, तुम कहाँसे आये हो, तुम क्या व्याकरणको जानते हो या विस्तारपूर्ण न्यायको जानते हो, तथा तुम क्या शास्त्रके मर्मज्ञ हम ब्राह्मणोंके साथ वाद करना चाहते हो ॥३-४॥ इसपर तापस वेषधारी मनोवेग बोला कि हे ब्राह्मणो! मैं अमुक गाँवसे आया हूँ, तथा मैं व्याकरण, न्याय और वाद इनमें किसीको भी नहीं जानता हूँ ॥५॥ ___ उसके इस उत्तरको सुनकर ब्राह्मण बोले कि तुम परिहासको छोड़कर यथायोग्य अपने १) अ इ विनिगद्य ऋषे; क ड खेचरा । ३) अ क ड इ घण्टाभेरि । ६) व क ह स्वरूपं पृ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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