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________________ १९० अमितगतिविरचिता दवीयसो'ऽपि सर्वेषां जानानस्य शुभाशुभम् । विशिष्टानुग्रहं शश्वत् कुर्वतो दुष्टनिग्रहम् ॥१२ स्वान्तरस्थप्रियान्तःस्थे पावके समर्तिनः। अज्ञाते ऽपि यथा विप्रा देवत्वं न पलायते ॥१३ छिन्ने ऽपि मषकः कणें मदीयस्य तथा स्फुटम् । बिडालस्य न नश्यन्ति गुणा गुणगरीयसः ॥१४ आशंसिषुस्ततो विप्राः शोभनं भाषितं त्वया। जानाने गतन्यायः पक्षः सद्धिः समर्थ्यते ॥१५ शतधा नो' विशीयन्ते पुराणानि विचारणे । वसनानीव जीर्णानि कि कुर्मो भद्र दुःशके ॥१६ तेषामिति वचः श्रुत्वा प्राह खेचरनन्दनः । श्रूयतां ब्राह्मणा देवः संसारखुमपावकः ॥१७ लावण्योदधिवेलाभिमन्मथावासभूमिभिः । त्रिलोकोत्तमरामाभिर्गुणसौन्दर्यखानिभिः ॥१८ १२) १. देवो ऽपि। १५) १. अवादिषुः स्तुतिं चक्रुः । २. न्यायरहितः । ३. स्थाप्यते, मन्यते; क अङ्गीकुरुते । १६) १. क अस्माकम् । २. वयम् ।। तब वह मनोवेग बोला कि हे विप्रो ! अतिशय दूर रहकर भी सब प्राणियोंके शुभ व अशुभके ज्ञाता तथा निरन्तर सत्पुरुषोंके अनुग्रह और दुष्ट जनोंके निग्रहके करनेवाले उस यमके अपने उदरस्थ प्रिया (छाया) के अभ्यन्तर भागमें अवस्थित उस अग्निको न जाननेपर भी जिस प्रकार उसका देवपना नष्ट नहीं होता है उसी प्रकार चूहोंके द्वारा मेरे बिलावके कानके खा लेनेपर भी स्पष्टतया उसके अन्य अतिशय महान् गुण नष्ट नहीं हो सकते हैं ॥१२-१४॥ मनोवेगके इस भाषणको सुनकर ब्राह्मण उसकी प्रशंसा करते हुए बोले कि तुमने बहुत ठीक कहा है। ठीक है-वस्तुस्थितिके जाननेवाले सत्पुरुष न्यायसे शून्य पक्षका समर्थन नहीं किया करते हैं ॥१५॥ हे भद्र ! हम क्या करें, विचार करनेपर हमारे पुराण जीर्ण वस्त्रोंके समान गल जाते हैं वे अनेक दोषोंसे परिपूर्ण दिखते हैं और इसीलिए वे उस विचारको सहन नहीं कर सकते हैं ॥१६॥ ___ उनके इस कथनको सुनकर विद्याधर-बालक-मनोवेग-बोला कि हे विप्रो ! मेरे इन वचनोंको सुनिए । देव संसाररूप वृक्षको जलानेके लिए अग्निके समान तेजस्वी होता है। सौन्दर्यरूप जलकी वेला ( किनारा) के समान जो तीनों लोकोंकी उत्तम स्त्रियाँ कामदेवकी निवासभूमि और गुण एवं सुन्दरताकी खान हैं तथा जो अपने कटाक्ष-युक्त चितवनोंरूप १२) अ देवीयसो ऽपि; इ कुर्वन्ति। १३) बन्तःस्थपावके । १४) ड इ तदा for तथा । १७) ड इ देवं ....पावकम् । १८) अ क द इ लावण्योदक व गुणैः ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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