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________________ धर्मपरीक्षा-११ आगत्य कान्तां स' निधाय बाह्यां गङ्गां प्रविष्टो ऽघविशुद्धिकामः । विधाय रूपं कमनीयमग्निः संगं तयामा परिगृह्य चक्रे ॥८३ अयन्त्रिता स्त्री मनसा विषण्णा गृह्णाति दृष्ट्वा पुरुषं यमिष्टम् । अजेव साद्रं तरुपत्रजालं' कुप्यन्ति नार्यों हि नियन्त्रणायाम् ॥८४ विधाय संगं ज्वलनेन साध बभाण सा त्वं व्रज शीघ्रमेव । भर्तुर्मदीयस्य विरुद्धवृत्तेयंमस्य नाथागतिकाल एषः ॥८५ त्वया समेतां यदि वोक्षते मां तदा मदोयां स लुनाति' नासाम् । निशुम्भति त्वां च विवृद्धकोपो न कोऽपि दृष्ट वा क्षमते हि जारम् ॥८६ आलिङ्ग्य पोनस्तनपीडिताङ्गों जगाव वह्नि'दयिते यदि त्वाम् । विमुच्य गच्छामि वियोगहस्ती तवेष मां दुष्टमना हिनस्ति ॥८७ ८३) १. अग्निः (?)। ८४) १. क अरक्षिता सती । २. खेदखिन्ना। ३. क गृह्णाति । ४. रक्षणायाम् । ८५) १. भवति । ८६) १. क छिनत्ति । २. क नासिकाम् । ३. मारयति । ८७) १. अग्निः । उधर यम आया और प्रियाको पेटके बाहर रखकर विशुद्धिक इच्छासे गंगा नदीके भीतर प्रविष्ट हुआ। अग्निदेवने उस समय अपना सुन्दर रूप बनाया और उसे ग्रहण करके उसके साथ सम्भोग किया ॥८॥ ठीक है-परतन्त्रतामें जकड़ी हुई स्त्री मनमें खेदका अनुभव करती हुई किसी अभीष्ट पुरुषको देखकर उसे इस प्रकार स्वीकार कर लेती है जिस प्रकार कि पराधीन बकरी वृक्षके हरे पत्रसमूहको देखकर उसे तत्परतासे स्वीकार करती है-उसे खाने लग जाती है। सो यह भी ठीक है, क्योंकि, पराधीनतामें स्त्रियाँ क्रोधको प्राप्त हुआ ही करती हैं ॥८४॥ उस अग्निके साथ सम्भोग करके छाया बोली कि हे नाथ ! अब तुम यहाँसे शीघ्र ही चले जाओ, क्योंकि, मेरे पतिका व्यवहार-स्वभाव-विपरीत है। यह उसके आनेका समय है ।।८५॥ यदि वह तुम्हारे साथ मुझे देख लेगा तो मेरी नाक काट लेगा और तुम्हें भी कुपित होकर मार डालेगा। कारण यह कि कोई भी व्यक्ति अपनी पत्नीके जारको–उपपतिकोदेखकर क्षमाशील नहीं रह सकता है ॥८६॥ यह सुनकर स्थूल स्तनोंसे पीड़ित शरीरवाली उस छायाका आलिंगन करके अग्नि बोला कि हे प्रिये ! यदि तुमको छोड़कर मैं जाता हूँ तो यह दुष्ट मनवाला वियोगरूप हाथी मुझे मार डालेगा ॥८॥ ८३) क इ बाह्यम् । ८४) अब नियन्त्रिता; अब पटिष्ठम् for यमिष्टम्; ब सान्द्रं"नियन्त्रणाय । ८५) अ नाद्यागतिकाल। ८६) अ वीक्ष्यते; क भिनत्ति for लुनाति; क ड इ नैकोपि । ८७) अ पीडिताङ्गं क पीडितानां; क तदैष । २४
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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