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अमितगतिविरचिता
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रक्ष्यमाणामुना' तन्वी न द्रष्टुमपि लभ्यते । . कुत एव पुनस्तस्या: संगमो ऽस्ति विभावसो ॥७७ स्वकीयया श्रिया सर्वा जयन्ती सुरसुन्दरीः । ति निषेव्य सा तेन जठरस्था विधीयते ॥७८ एकाकिनी स्थिता स्पष्टं याममेकं विलोचनैः । अघमर्षणका सा केवलं दृश्यते सती ॥७९ अवाचि वह्निना वायो यामेनैकेन निश्चितम् ।
गृह्णामि त्रिलोकस्यां का वार्तैकत्र योषिति ॥८० marrai यौवनभूषिताङ्गीं वधूं स्मराक्रान्तशरीरयष्टिम् । कुर्वन्ति वश्यां तरसा युवानो न विद्यते किंचन चित्रमत्र ॥८१ निशात 'कामेषु विभिन्नकायो 'वह्निर्निगद्येति जगाम तत्र । यत्राघमषं विदधाति देशे यमो बहिस्तां परिमुच्य तन्वीम् ॥८२
७७) १. वायुना । २. हे अग्ने । ७८) १. यमेन ।
७९) १. पापस्फेटनकाले ।
८१) १. पुरुषाः ।
८२) १. तीक्ष्ण । २. क अग्निः । ३. गंगामध्ये पाप ।
कामिनीकी रक्षा इस प्रकारसे कर रहा है कि उसे कोई देख भी नहीं पाता है। फिर भला हे अग्निदेव ! उसका संयोग कहाँसे हो सकता है - वह सम्भव नहीं है ||७६-७७।।
वह कान्ता अपनी शोभासे सभी सुन्दर देवललनाओंको जीतनेवाली है । यह उसके साथ सुरत- सुखको भोगकर उसे पुनः पेटके भीतर रख लेता है || १८ |
वह साध्वी केवल अघमर्षण काल में - स्नानादिके समय में - एक पहर तक अकेली अवस्थित रहती है | उस समय उसे विशिष्ट नेत्रोंके द्वारा स्पष्टतासे देखा जा सकता है ॥७९॥ इस उत्तरको सुनकर अग्निने वायुसे कहा कि एक पहरमें तो निश्चयसे तीनों लोकोंकी स्त्रियोंको मैं ग्रहण कर सकता हूँ, फिर भला एक स्त्रीके विषयमें तो आस्था ही कौन-सी है— उसे तो इतने समय में अनायास ही ग्रहण कर सकता हूँ ||८०||
सो ठीक भी है—अकेली ( रक्षकसे रहित ), यौवनसे सुशोभित शरीरावयवोंसे संयुक्त और कामदेव अधिष्ठित शरीर-लताको धारण करनेवाली स्त्रीको यदि तरुण जन शीघ्र ही शमें कर लेते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है ॥ ८१ ॥
इस प्रकार जिसका शरीर तीक्ष्ण कामके बाणोंसे विध चुका था वह अग्निदेव ऐसा कहकर जिस स्थानपर वह यम उस सुन्दरीको बाहर छोड़कर – पेटसे पृथक करकेपापनाशक स्नानादि क्रियाको किया करता था वहाँ जा पहुँचा ॥ ८२ ॥
७८) अ ब रतं निषेव्य । ७९) व पृष्टं, क स्पृष्टं for स्पष्टं । ८०) क ड अवाच्यप्यग्निना; व स्त्रीर्गृह्णामि ... ● स्था: । ८२) ड इ वायुं for वह्निः ।