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________________ १५१ धर्मपरीक्षा-९ नष्टः क्षिप्रं वस्त्रयुग्मं गृहीत्वा वैद्यस्तुष्टः पूजितो भामिनीभिः । सोढ़वा पीडां दुनिवारां स्थितोऽहं मूकोभूय व्यर्थमानाग्नितप्तः ॥८४ हासं हासं सर्वलोकैस्तदानों ख्याता गल्लस्फोटिकाल्या कृता मे। किं वा हास्यं याति दुःखं न निन्धं क्षिप्रं प्राणी दुष्टचेष्टानिविष्टः ॥८५ यादृङ्मौख्यं तस्य मे यः स्थितोऽहं मूको गल्लस्फोटने ऽप्यप्रसीं । 'ब्रूतेदृक्षं स्वार्थविध्वंसि पौराः यद्यन्यत्र क्वापि दृष्टं भवद्भिः ॥८६ लज्जा मानः पौरुषं शौचमर्थः कामो धर्मः संयमो ऽकिंचनत्वम् ।। ज्ञात्वा काले' सर्वमाधीयमानं दत्ते पुंसां काक्षितां मङ्क्षु सिद्धिम् ॥८७ हेयादेयज्ञानहीनो विहीनो मर्यो काले यो ऽभिमानं विधत्ते । हास्यं दुःखं सर्वलोकापवादं लब्ध्वा घोरं श्वभ्रवासं स याति ॥८८ ८५) १. नाम। ८६) १. कथयत । २. मौर्यम् । ३. क्रियमाणं सत् । ८७) १. प्रस्तावे । २. पूजमानम् । ३. शीघ्रम् । तत्पश्चात् स्त्रियोंके द्वारा पूजा गया वह वैद्य दो वस्त्रोंको ग्रहण करके सन्तुष्ट होता हुआ वहाँसे शीघ्र ही भाग गया। इस प्रकारसे मैं निरर्थक अभिमानरूप अग्निसे सन्तप्त होकर उस दुःसह पीड़ाको सहता हुआ चुपचाप स्थित रहा ॥४॥ उस समय सब लोगोंने पुनः-पुनः हँसकर मेरा नाम गल्लस्फोटिक प्रसिद्ध कर दिया। ठीक है, जो प्राणी दूषित प्रवृत्तिमें निरत होता है वह क्या शीघ्र ही परिहासके साथ निन्दनीय दुखको नहीं प्राप्त होता है ? अवश्य प्राप्त होता है ।।८५॥ हे नगरवासियो ! जो मैं गालोंके चीरते समय उत्पन्न हुई असह्य पीड़ाको सहता हुआ भी चुपचाप स्थित रहा उस मुझ-जैसी स्वार्थको नष्ट करनेवाली इस प्रकारकी मूर्खता यदि आप लोगोंके द्वारा अन्यत्र कहींपर भी देखी गयी हो तो उसे बतलाइए ॥८६॥ लज्जा, मान, पुरुषार्थ, शुद्धि, धन, काम, धर्म, संयम, अपरिग्रहता, इन सबको जान करके यदि इनका आश्रय योग्य समयमें किया जाये तो वह प्राणियोंके लिए शीघ्र ही अभीष्ट सिद्धिको प्रदान करता है ।।८७॥ ___ जो मूर्ख हेय और उपादेयके विवेकसे रहित होकर समयके बीत जानेपर-अयोग्य समयमें अभिमान करता है वह परिहास, दुख और सब लोगोंके द्वारा की जानेवाली निन्दाको प्राप्त होकर भयानक नरकवासको प्राप्त होता है-नरकमें जाकर वहाँ असह्य दुखको भोगता है ।।८८। ८६) अ °स्फोटने प्राप्य सह्ये । ८८) इ हेयाहेय; क ऽपि दीनो for विहीनो; अ इ विप्रा for काले ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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