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अमितगतिविरचिता शयनाधस्तनो भागो मयालोकि शनस्ततः। बुभुक्षापीडितः कस्य सन्मुखं न विलोकते ॥६५ विशालं भाजनं तत्र शालीयैस्तन्दुलै तम् । विलोकितं मया व्योम शुद्धैश्चन्द्रकरैरिव ॥६६ मयालोक्य गृहद्वारं तन्दुलैः पूरितं मुखम् । उदरानलतप्तस्य मर्यादा हि कुतस्तनी ॥६७ तस्मिन्नेव क्षणे तत्र प्रविष्टा मम वल्लभा। त्रपमानमनास्तस्याः फुल्लगल्लाननः स्थितः ॥६८ उत्फुल्लगल्लमालोक्य मां स्तब्धीकृतलोचनम् । सा मातुः सूचयामास शङ्कमाना महाव्यथाम् ॥६९ श्वश्रूरागत्य मां दृष्ट्वा संदिग्धा' जीविते ऽजनि । प्रेमा पश्यत्यकाण्डे ऽपि प्रियस्य विपदं पराम ॥७०
६६) १. पटलवजितैः। ६८) १. मया। ६९) १. ज्ञात्वा । ७०) १. संदेह । २. सुताया नाम । ३. अप्रस्तावे । ४. बटुप्रियस्य ।
तब मैंने धीरेसे शय्याके नीचेका भाग देखा। ठीक है, भूखसे पीड़ित प्राणी किसके सम्मुख नहीं देखता है ? वह उस भूखकी पीड़ाको नष्ट करनेके लिए जहाँ-तहाँ और जिसकिसीके भी सम्मुख देखा करता है ॥६५॥
- वहाँ मैंने आकाशके मध्यमें फैली हुई चन्द्रकिरणोंके समान उज्ज्वल शालि धानके चावलोंसे भरा हुआ एक बड़ा बर्तन देखा ॥६६॥
उसे देखकर मैंने घरके द्वारकी ओर देखा और उधर जब कोई आता-जाता न दिखा तब मैंने अपने मुँहको उन चावलोंसे भर लिया। सो ठीक भी है-जो पेटकी अग्निसेभूखसे-सन्तप्त होता है उसका न्यायमार्गमें अवस्थान कहाँसे सम्भव है ? अर्थात् वह उस भूखकी बाधाको नष्ट करनेके लिए उचित या अनुचित किसी भी उपायका आश्रय लेता ही है ॥६॥
इसी समय वहाँ मेरी प्रिय पत्नीने प्रवेश किया। उसे देख मनमें लज्जा उत्पन्न होने के कारण मैं मुँहके भीतर चावल रहनेसे गालोंको फुलाये हुए वैसे ही स्थित रह गया ॥६॥
___ उसने मुझे इस प्रकारसे फूले हुए गालों व स्थिर नेत्रोंसे संयुक्त देखकर महती पीड़ाकी आशंकासे इसकी सूचना अपनी माँको कर दी ॥६९॥ ।
सासने आकर जब मुझे इस अवस्थामें देखा तो उसे मेरे जीवित रहनेमें शंका हुईउसने मुझे मरणासन्न ही समझा । सो ठीक भी है, क्योंकि, प्रेम असमयमें भी अपने प्रियकी उत्कृष्ट विपत्तिको देखा करता है-अतिशय अनुरागके कारण प्राणीको अपने इष्ट जनके विषय में कारण पाकर अनिष्टकी आशंका स्वभावतः हुआ करती है ॥७०॥ ६६) ब व्यालोक्य, क विलोक्य; अ व्योम्नि । ६८) अननस्थितिः । ७०) अ ब प्रेम, इ प्रेम्णा; अ विपदाम् ।