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________________ १४२ अमितगतिविरचिता विलोक्य वेगतः खर्या क्रमस्योपरि मे क्रमः । भग्नो मुसलमादाय दत्त निष्ठुरघातया ॥ २७ ऋक्ष्या खरी ततो ऽभाणि बोडे ' दुष्कृतकारिणि । किमद्यते ऽलं जातं यत्करोषीदृशीं क्रियाम् ॥२८ पतिव्रतायसे दुष्टे भोजं भोजेमनारतम् । विटानां हि सहस्राणि खराणामिव रासभी ॥२९ ऋक्षी निगदिता खर्या विटवृन्दमनेकधा । जननीवे निषेव्य त्वं दोषं यच्छसि मे खले ॥३० मुण्डयित्वा शिरो बोडे कृत्वा पञ्चजटीं शठे । शराव मालयाचित्वा भ्रामयामि पुरान्तरे ॥ ३१ इत्थं तयोर्महाराटी प्रवृत्ता दुर्निवारणा । लोकानां प्रेक्षणीभूता राक्षस्योरिव रुष्टयोः ॥३२ २८) १. हे रंडे । २९) १. भुक्त्वा भुक्त्वा । ३०) १. स्वमातेव । सुखका उपभोग करते हुए मेरा समय जा रहा था। इस बीच प्राणोंसे भी अतिशय प्यारी ऋक्षीने प्रसन्नचित्त होकर मेरे एक पाँवको धोया और दूसरे पाँव के ऊपर रख दिया ।। २५-२६॥ यह देखकर खरीने शीघ्र ही पाँवके ऊपर स्थित उस पाँवको निर्दयतापूर्वक मसलके प्रहार से आहत करते हुए तोड़ डाला ||२७|| इसपर ऋक्षीने खरीसे कहा कि दुराचरण करते हुए धर्मिष्ठा बननेवाली ( या युवती ) हे खरी ! आज तुझे क्या बाधा उपस्थित हुई है जो इस प्रकारका कार्य ( अर्थ ) कर रही है ॥२८॥ हे दुष्टे ! जिस प्रकार गधी अनेक गधोंका उपभोग किया करती है उसी प्रकार तू हजारों जारोंको निरन्तर भोगकर भी पतिव्रता बन रही है ||२९|| यह सुनकर खरीने ऋक्षीसे कहा कि हे दुष्टे ! तू अपनी माँके समान अनेक प्रकारसे व्यभिचारियों के समूहका स्वयं सेवन करके मुझे दोष देती है ||३०|| दुराचरण करके स्वयं निर्दोष बननेवाली हे धूर्त ऋक्षे ! मैं तेरे शिरका मुण्डन कराकर और पाँच जटावाली करके सकोरोंकी मालासे पूजा करती हुई तुझे नगर के भीतर घुमाऊँगी ||३१|| इस प्रकार क्रुद्ध हुई राक्षसियोंके समान उन दोनोंके बीच जो दुर्निवार महा कलह हुआ वह लोगोंके देखनेके लिए एक विशेष दृश्य बन गया था ||३२|| २८) अ ब बोटे; ब ऽधिकं for sर्गलम्; अ यां for यत् । ३०) अ ड इ ऋक्षीति गदिता । ३१) अ साराव; ड इ पुरान्तरम् । ३२) अ दुर्निवारिणी, ब प्रवृत्ताश्चर्यकारिणी; ब कष्टयोः, इ दुष्टयोः for रुष्टयोः ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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