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अमितगतिविरचिता ज्वलित्वा स्फुटिते' नेत्रे शशाम ज्वलनः स्वयम् । नाकारि कश्चनोपायो मया भीतेन शान्तये ॥१४ मया हि सदृशो मूों विद्यते यदि कथ्यताम् । यः स्त्रीत्रस्तो निजं नेत्रं दह्यमानमुपेक्षते ॥१५ स्फुटितं विषम नेत्रं स्त्रीभीतस्य यतस्ततः। ततःप्रभृति संपन्नं नाम मे विषमेक्षणः ॥१६ तन्नेह विद्यते दुःखं दुःसहं जननद्वये । प्राप्यते पुरुषैर्यन्न योषाच्छन्दानुवतिभिः ॥१७ मूकीभूयावतिष्ठन्ते प्लुष्यमाणे' स्वलोचने । ये महेलावशा दोनास्ते परं किं न कुर्वते ॥१८ विषमेक्षणतुल्यो यो यदि मध्ये ऽस्ति कश्चन । तदा बिभेम्यहं विप्रा भाष्यमाणोऽपि भाषितुम् ॥१९
१४) १. सति । २. दीपकः । १५) १. अहं यः। १६) १. वामनेत्रम् । २. जातम् । १८) १. दह्यमाने सति।
इस प्रकारसे जलकर नेत्रके फूट जानेपर वह आग स्वयं शान्त हो गयी। परन्तु भयभीत होनेके कारण मैंने उसकी शान्तिके लिए कोई उपाय नहीं किया ॥१४॥
जो स्त्रियोंसे भयभीत होकर जलते हुए अपने शरीरकी उपेक्षा कर सकता है ऐसा मेरे समान यदि कोई मूर्ख लोकमें हो तो उसे आप लोग बतला दे ।।१५।।
स्त्रियोंसे भयभीत होनेके कारण जबसे मेरा वह बायाँ नेत्र फूटा है तबसे मेरा नाम विषमेक्षण प्रसिद्ध हो गया है ॥१६॥
लोकमें वह कोई दुःख नहीं है जिसे कि स्त्रियोंकी इच्छानुसार प्रवृत्ति करनेवाले उनके वशीभूत हुए-पुरुष दोनों लोकोंमें न प्राप्त करते हों। तात्पर्य यह कि मनुष्य स्त्रीके वशमें रहकर इस लोक और परलोक दोनोंमें ही दुःसह दुखको सहता है ॥१७॥ - जो बेचारे स्त्रीके वशीभूत होकर अपने नेत्रके जलनेपर भी चुपचाप (खामोश) अवस्थित रहते हैं वे अन्य क्या नहीं कर सकते हैं ? अर्थात् वे सभी कुछ योग्यायोग्य कर सकते हैं ॥१८॥
- मनोवेग कहता है कि हे ब्राह्मणो, यदि आप लोगोंके मध्यमें उस विषमेक्षणके समान कोई है तो मैं पूछे जानेपर भी कहनेके लिए डरता हूँ ॥१९॥
१५) ड इ स्त्रीसक्तो। १६) इ विषमेक्षणम् । १८) ड इमाणे सुलोचने । १९) द वो for यो; वक त्रस्याम्यह, क ड इ भाषमाणो; ड विभाषितुं ।