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________________ १२० अमितगतिविरचिता मौख्यंसमानं भवति तमो नो ज्ञानसमानं भवति न तेजः। जन्मसमानो भवति न शत्रर्मोक्षसमानो भवति नबन्धः ॥८७ उष्णमरीचौ तिमिरनिवासः शीतलभावो विषममरीचौ' । स्यावथ तापः शिशिरमरीची जातु विचारो भवति न मूर्खे ॥८८ श्वापदे पूर्ण वरमवगाा कक्षेमुपास्यो वरमहिराजः। वज्रहुताशो वरमनुगम्यो जातु न मूर्खः क्षणमपि सेव्यः ॥८९ अन्धस्य नृत्यं बधिरस्य गोतं काकस्य शौचं मृतकस्य भोज्यम् । नपुंसकस्याथ वृथा कलत्रं मूर्खस्य दत्तं सुखकारि रत्नम् ॥९० इयं कथं दास्यति मे पयो गौरिदं न यः पृच्छति मुग्धबुद्धिः । दत्त्वा धनं धेनुमुपाददानो म्लेच्छेन तेनास्ति समो न मूर्खः ॥९१ गृह्णाति यो भाण्डमबुध्यमानः पृच्छामकृत्वा द्रविणं वितीर्य । मलिम्लुचानां विपिने सशङ्के ददात्यमूल्यं ग्रहणाय रत्नम् ॥९२ ८८) १. अग्नौ । ८९) १. क वनचरजीव । २. वनम् । ९२) १. परीक्षाम् । २. चौराणाम्; क पक्षे भिल्लानाम् । मूर्खताके समान दूसरा कोई अन्धकार नहीं है, ज्ञानके समान दूसरा कोई प्रकाश नहीं है, जन्मके समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है, तथा मोक्षके समान अन्य कोई बन्धु नहीं है ॥८७।। सूर्यकी उष्ण किरणमें कदाचित् अन्धकारका निवास हो जाये, अग्निमें कदाचित् शीतलता हो जाये, तथा चन्द्रमाकी शीतल किरणमें कदाचित् सन्ताप उत्पन्न हो जाये; परन्तु मूर्ख मनुष्यमें कभी भले-बुरेका विचार नहीं हो सकता है ।।८८॥ व्याघ्र आदि हिंसक पशुओंसे परिपूर्ण वनमें रहना उत्तम है, सर्पराजकी सेवा करना श्रेष्ठ है, तथा वनाग्निका समागम भी योग्य है; परन्तु मूर्ख मनुष्यकी क्षण-भर भी सेवा करना योग्य नहीं है ॥८९॥ __ जिस प्रकार अन्धेके आगे नाचना व्यर्थ होता है बहिरेके आगे गाना व्यर्थ होता है, कौवेको शुद्ध करना व्यर्थ होता है, मृतक (मुर्दा) को भोजन कराना व्यर्थ होता है, तथा नपुंसकके लिए स्त्रीका पाना व्यर्थ होता है; उसी प्रकार मूर्खके लिए दिया गया सुखकर रत्न भी व्यर्थ होता है ॥१०॥ जिस मूर्ख म्लेच्छने उत्तम धन देकर उस गायको तो ले लिया, परन्तु यह नहीं पूछा कि यह गाय मुझे दूध कैसे देगी; उसके समान और दूसरा कोई मूर्ख नहीं है ।।९।। . जो मूर्ख धनको देकर बिना कुछ पूछे ही वैश्यके धनको लेता है वह वनके भीतर अभीष्ट वस्तुके लेनेके लिए चोरोंको अमूल्य रत्न देता है, ऐसा मैं समझता हूँ ॥९२।। ८७) अब मुर्खसमानं; अ मूर्खसमानं भवति न तेजो जन्मसमानो न भवति शत्रुः । मोक्षसमानो न भवति बन्धुः पुण्यसमानं न भवति मित्रम् ; ब क न भवति शत्रु....न भवति बन्धुः। ८८) अ न भवति मूर्ख । ९०) ब नृत्तं । ९१) ब पश्यति for पृच्छति; इ मूढबुद्धिः; अब सारं for धेनुम् ; अ समानमूर्खः । ९२) ब भावमबुध्य; म विपत्ते; क ड इ ददाति मूल्यं ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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