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________________ धर्मपरीक्षा-६ वक्त्रेण चन्द्रमोबिम्बं चक्षुां मृगचक्षुषी। ललाटेनाष्टमीचन्द्र केशश्वमरबालधिम् ॥६० जल्पेन कोकिलालापं क्षमया त्वां वसुन्धराम् । जयन्ती स्मरतः कान्ते कुतस्त्या मम निर्वृतिः ॥६१ कुलकम् । दर्शनं स्पर्शनं दृष्ट्वा हसनं नर्मभाषणम् । सर्व दूरीकृतं कान्ते कृतान्तेन समं त्वया ॥६२ कण्ठोष्ठे नगरे रम्ये कण्ठोष्ठाद्यङ्गसुन्दरी। न लब्धा त्वं मया भोक्तुं देवानामिव सुन्दरी ॥३३ मम त्वया विहोनस्य का मृगाक्षि सुखासिका। निर्वृतिश्चक्रवाकस्य चक्रवाकोमँते कुतः ॥६४ इत्थमेकेन शोकातः सो ऽवाचि ब्रह्मचारिणा। कि रोदिषि वृथा मूढ व्यतिक्रान्ते' प्रयोजने ॥६५ ६१) १. क कामात् । २. सुख; क संतोष । ६२) १. मृदु। ६४) १. सुखेन स्थिता [तिः ] । २. सुख । ३. विना। ६५) १. क व्यतीते । २. इष्टे । छटासे जल के भ्रमणको, पेटसे वनको कान्तिको, दोनों स्तनोंसे सुवर्ण कलशोंको, कण्ठसे शंखकी शोभाको, मुखसे चन्द्रबिम्बको, नयनोंसे हरिणके नेत्रोंको, मस्तकसे अष्टमीके चन्द्रमाको, बालोंसे चमरमृगकी पूँछको, वचनसे कोयलकी वाणीको, तथा क्षमासे पृथिवीको जीतती थी। हे प्रिये ! इस प्रकारके तेरे रूपका स्मरण करते हुए मुझे शान्ति कहाँसे प्राप्त हो सकती है ? ॥५८-६१॥ हे यज्ञे ! तेरा दर्शन, स्पर्शन, देख करके हँसना, मृदु भाषण; यह सब यमराजने दूर कर दिया है ॥६२।। इस रमणीय कण्ठोष्ठ नगरमें आकर मैं देवोंकी सुन्दरी (अप्सरा) के समान कण्ठ और होठों आदि अवयवोंसे सुन्दर तुझे उपभोगके लिए नहीं प्राप्त कर सका ।।६३।। हे मृगके समान सुन्दर नेत्रोंवाली ! जिस प्रकार चक्रवाकीके बिना चक्रवाक कभी सुखसे स्थित नहीं हो सकता है उसी प्रकार मैं भी तेरे बिना किस प्रकार सुखसे स्थित रह सकता हूँ ? नहीं रह सकता ।।६४॥ इस प्रकार शोकसे पीड़ित उस ब्राह्मण विद्वान्से एक ब्रह्मचारी बोला कि, हे मूर्ख ! प्रयोजनके बीत जानेपर अब व्यर्थ क्यों रोता है ? ॥६५।। ६०) अ चन्द्रमाबिम्बं; ड चक्षुषा । ६१) इ च for त्वाम्; इ कुतः स्यान्मम । ६२) ब ड दिष्टया for दृष्ट्वा, अ नमरोषणम्, ब ड इ मर्मभाषणम् । ६३) क देवानामपि । ६४) ड इ सुखाशिका; अ चक्रवाकीगते ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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