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अमितगतिविरचिता
स तया सह भुजानो भोग भोगवतां मतः। व्यवस्थितः स्थिरप्रज्ञः प्रसिद्धो धरणीतले ॥७ तत्रैको बटुको नाम्ना यज्ञो यज्ञ इवोज्ज्वलः । आगतो यौवनं बिभ्रत्स्त्रीनेत्रभ्रमराम्बुजम् ॥८ विनीतः पटुधोर्दृष्ट्वा वेदार्थग्रहणोचितः। संगृहीतः से विप्रेण मूर्तो ऽनर्थ इव स्वयम् ॥९ शकटीव भराकान्ता यज्ञाजनि विसंस्थुला । भग्नाक्षप्रसरा सद्यस्तस्य दर्शनमात्रतः ॥१० स्नेहशाखी' गतो वृद्धि रतिमन्मथयोरिव । सिक्तः सांगत्यतो येन तयोरिष्टफलप्रदः ॥११ ज्ञेया गोष्ठी दरिद्रस्य भृत्यस्य प्रतिकूलता। वृद्धस्य तरुणी भार्या कुलक्षयविधायिनी ॥१२
८) १. क शिष्यः। ९) १. स बटुकः। १०) १. क निश्चला। ११) १. वृक्षः। १२) १. क पराङ्मुखता।
भोगशाली जनोंसे सम्मानित वह उस यज्ञाके साथ भोगको भोगता हुआ स्थित था। उसकी प्रसिद्धि भूतलपर स्थिरप्रज्ञ ( स्थितप्रज्ञ ) स्वरूपसे हो गयी थी ॥७॥
.. वहाँ यज्ञके समान उज्ज्वल एक यज्ञ नामका ब्रह्मचारी (अथवा बालक) आया। वह स्त्रियोंके नेत्ररूप भ्रमरोंके लिए कमलके समान यौवनको धारण करता था ।।८।।
उसे भूतमति ब्राह्मणने नम्र, बुद्धिमान् और वेदार्थ ग्रहणके योग्य देखकर अपने पास स्वयं मूर्तिमान् अनर्थके ही समान रख लिया ।।९।।
. जिस प्रकार बहत बोझसे संयुक्त गाडी धरीके टूट जानेसे शीघ्र ही अस्त-व्यस्त हो जाती है उसी प्रकार यज्ञा उस बटुकको देखते ही इन्द्रियों के वेगके भग्न होनेसे-कामासक्त हो जानेसे-विह्वल हो गयी ॥१०॥
रति और कामदेवके समान उन दोनोंके संगमरूप जलसे सींचा गया स्नेहरूप वृक्ष वृद्धिको प्राप्त होकर अभीष्ट फलको देनेवाला हो गया ॥११॥
दरिद्रकी गोष्ठी-पोषणके योग्य कुटुम्बकी अधिकता, सेवक की प्रतिकूलता (विपरीतता) और वृद्ध पुरुषकी युवती स्त्री; ये कुलका विनाश करनेवाली हैं ॥१२॥
७) इ स्थिरः प्राज्ञः। ११) ब संगत्यतां; क संगत्यतो; ब 'रिष्टः फल । १२) बक्षयविनाशिनी।