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कल्याण कर दे। अपनी स्वयं की भावना और साधना से कल्याण हो सकता है, पर प्रस्तर प्रतिमा में इतना सामर्थ्य कहाँ कि वह किसी का कल्याण या उद्धार कर सके। कोई सचेतन है, उससे तो ज्ञान मिल सकता है, कोई प्रेरणा भी मिल सकती है, पुस्तक में लिखी हुई बातों को पढ़ने से भी ज्ञान मिल सकता है, पर जो निर्जीव है, अचेतन है, उसमें कोई चारित्र, कोई सम्यक्त्व और वैराग्य की साधना से निसृत कोई वीतरागता है क्या? अगर नहीं है तो फिर वह पुद्गल पदार्थ वंदनीय किस आधार पर हो सकता है ? ये अमूर्तिपूजक विचारधारा के तर्क है। हालांकि किसी मूर्तिपूजक के साथ चर्चा की जाए तो मूर्तिपूजा के समर्थन में उसके भी अपने तर्क हो सकते हैं, किन्तु तर्क और चर्चा से कोई सारपूर्ण बात या निष्कर्ष निकल सकता है, ऐसा मेरा मानना है । अमूर्तिपूजक परम्परा की वह अवधारणा है कि जो अचेतन है, गुणशून्य और चारित्रशून्य है, वह पूजा के योग्य नहीं हो
सकता ।
अपने आराध्य की पूजा के लिए स्मृति की जाती है । जब प्रश्न होता है कि मूर्तिपूजा के पीछे आधार क्या है ? अमूर्तिपूजक भी अपने आराध्य की स्मृति करते हैं और मूर्तिपूजक लोग भी अपने आराध्य की स्मृति करते हैं । स्मृति करने के दो साधन होते है - नाम और रूप । या तो नाम के द्वारा आराध्य की स्मृति की जाती है या रूप के द्वारा की जाती है। भगवान महावीर किसी के आराध्य है, उनकी स्मृति करना है तो स्मृति कैसे होगी ?' महावीर' शब्द मस्तिष्क में आते ही मानस पटल पर महावीर की प्रतिमा या आकार उभरता है और उनकी स्मृति हो जाती है । म-हा-वी - र शब्द में तो कोई गुण नहीं है, वह तो केवल चार अक्षर का अचेतन नाम है, पर महावीर का नाम मस्तिष्क में आते ही उनकी स्मृति हो जाती है । यह स्मृति नाम के माध्यम से, शब्द के माध्यम से हुई, इसलिए यह नाम से होने वाली स्मृति है ।
स्मृति का दूसरा साधन है - रूप और आकार । महावीर की
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