________________
प्राथमिक-वक्तव्य प्रियपाठकगण ! जैनसाहित्य द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरितानुयोग और धर्मकथानुयोग इन चार विभागों में विभक्त है । प्रस्तुत ग्रन्थ इन विभागों में से धर्मकथानुयोग का ही एक शुभ ग्रंथ है । इस ग्रंथ का निर्माण विक्रम सं. १७५४ में पं. श्री केशरविमलजी गणिवर ने किया है जो कि- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों विभागों में विभक्त है, ग्रंथप्रणेता ने इस ग्रंथ में हर एक विषय पर भाषा छन्द देकर उसका विवेचन अच्छे ढंग से किया है और प्रत्येक विषय की पुष्टि करने के लिए शास्त्रीय प्रमाणों से युक्त कथाएं देकर ग्रंथ की उपादेयता और भी बढ़ा दी है। प्रायः यह ग्रंथ मालिनी छन्द में ही विशेष निबद्ध है और अनेक विषय की उपदेशरूप सूक्तोक्ति होने के कारण ग्रंथ का नाम भी 'यथा नाम तथा गुणः' इस कहावत के अनुसार 'सूक्तमुक्तावली' ऐसा यथार्थ नाम रक्खा गया है । यह ग्रंथ भीमसिंह माणक के द्वारा मुद्रित हो चुका है। इस ग्रंथ की भाषा १८वीं शताब्दी में प्रचलित गुर्जर व अन्यदेशीय भाषाओं से मिश्रित है। प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति के लिए इस ग्रन्थ का मनन करना अत्यावश्यक है। कर्ता ने हेय उपादेय विषयों का दिग्दर्शन अच्छी शैली से किया है। ऐसे अमूल्य और योग्य ग्रंथ के विषय से संस्कृत के विद्वान् वंचित न रहें, साथ ही साथ व्याख्यान देनेवाले साधु-साध्वियों के लिए भी इस ग्रंथ को अत्युपयोगी समझकर पू. पा. साहित्य विशारद विद्याभूषण आचार्यदेव श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सा. ने सं. १९८१ में इस ग्रंथ का संस्कृत अनुवाद सरल, मधुर एवं ललित भाषा में किया था। परन्तु आपकी विद्यमानता में यह ग्रंथ कतिपय कारणवश प्रकाशित न हो सका, आप के स्वर्गवास बाद सर्वानुमति से यह प्रस्ताव पास किया गया कि- स्वर्गवासी सूरीश्वरजी के उपदेश द्वारा साहित्य प्रकाशनार्थ जो द्रव्य श्रीसंघ में एकत्रित है, उस