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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन एकादश सर्ग
. . वर जयकुमार वधु सुलोचना के रूप सौन्दर्य का अवलोकन करता है । वह उसके रूप सौन्दर्य से अत्यधिक प्रभावित होता है ।
बादश सर्ग
जिनेन्द्र देव, जिनवाणी एवं गुरु की अष्टमंगल द्रव्यों से पूजन होती है और विवाह कार्य प्रारम्भ होता है । पुरोहित के निर्देशानुसार यज्ञ-हवन क्रिया पूर्ण होने पर कन्यादान की रस्म सम्पन्न की जाती है । गठबन्धन एवं सप्तपदी के पूर्ण होने पर माता-पिता एवं गुरु वर्ग वर-वधू को शुभाशीर्वाद देते हैं । वे सभी उनके सफल जीवन की कामना करते हैं, महिलाएँ मंगल-गीत गाती हैं । विवाह के इस शुभ अवसर पर अकम्पन राज्य कर (Tax) छोड़ देते हैं । वे धन की वर्षा ही कर देते हैं, वर-वधू के दहेज में कोई कमी नहीं रहती । विवाह के अनन्तर दासियों एवं महिलायें बारातियों को हास-परिहास के साथ पंक्तिभोज कराती हैं। राजा अकम्पन वर एवं वरपक्ष को यथाशक्ति आदर-सत्कार द्वारा पूर्णरूपेण सन्तुष्ट करते हैं। . त्रयोदश सर्ग
विवाह के पश्चात् जयकुमार अपने श्वसुर अकम्पन से हस्तिनापुर जाने की आज्ञा लेते हैं । राजा अकम्पन एवं रानी सुप्रभा अपने जामाता व पुत्री के मस्तक पर अक्षत अर्पित करते हैं । वे उन्हें अश्रुपूर्ण नेत्रों से विदा करते हैं । माता-पिता तथा प्रजा-वर्ग वर-वधू को नगर सीमा तक पहुँचाकर वापिस आ जाते हैं । सुलोचना के भाई उनके साथ जाते हैं । सारथि मार्ग में आये वन सौन्दर्य, वन्य पशुओं के वर्णन द्वारा जयकुमार का मनोरंजन करता है । वन भूमि पार कर वे गंगा के तट पर पहुँचते हैं । निर्मल जल वाली यह नदी राजहंसों एवं कमलों से सुशोभित थी । इस नदी के तट पर जयकुमार ससैन्य पड़ाव डालकर विश्राम करते हैं। चतुर्दश सर्ग
जयकुमार एवं सुलोचना अपने साथियों के साथ नदी के समीपवर्ती उद्यान में जाते हैं । वे सभी पुष्पापचय, मधुर आलाप एवं हास्य विनोद द्वारा मनोरंजन करते हैं । वन क्रीड़ा में हुई थकान को दूर करने के लिए सभी नदी के तट पर पहुँचते हैं । वहाँ सभी युगल जल उछालते, फेंकते तथा उसमें छिपते हुए जल-क्रीड़ा करते हैं । स्नान के अनन्तर नवीन वस्त्र पहनते हैं । इस समय सूर्य अस्त हो रहा था ।