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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन लिये आ जाते हैं । श्रीधर, सुहृद, सुकेतु, देवकीर्ति, जयवर्मा आदि न्यायप्रिय राजागण जयकुमार के पक्ष में सम्मिलित होते हैं । जयकुमार अपनी सुसज्जित सेना से साथ युद्ध क्षेत्र में पहुँचता है । अर्ककीर्ति युद्ध भूमि में आ जाता है । अर्ककीर्ति चक्रव्यूह की और जयकुमार मकरव्यूह की रचना करता है। अष्टम सर्ग सेनापति की आज्ञा से युद्धसूचक नगाड़ा बजा दिया जाता है । दोनों पक्षों की सेनाएँ परस्पर एक दूसरे को युद्ध के लिए ललकारती हैं । समरांगण की भयानक ध्वनि से सभी दिशाएँ गूंज उठती हैं । सेनाओं द्वारा उड़ी धूल से सूर्य छिप जाता है, सर्व दिशायें अन्धकाराच्छन्न हो जाती हैं । गजाधिप, रथारोही, अश्वारोही एवं पदाति परस्पर युद्ध प्रारम्भ करते हैं । जयकुमार तथा उसके पक्ष वाले अपने प्रतिपक्षियों का डटकर मुकाबला करते हैं। इसी बीच जयकुमार अपने पक्ष को कुछ कमजोर देख कर उदास हो जाता है । इस संकट के समय स्वर्ग से नागचरदेव आकर जयकुमार को नागपाश एवं अर्द्धचन्द्र बाण देता है । इनकी सहायता से जयकुमार अर्ककीर्ति को बन्दी बना लेते हैं । इस प्रकार युद्ध में भी जयकुमार को ही विजय प्राप्त होती है। . . युद्ध से वापिस आकर अकम्पन अपनी पुत्री सुलोचना को, जो जिनालय में बैठी थी, जयकुमार के धिनयी होने की शुभ सूचना देते हैं और स्नेहपूर्वक उसे घर ले आते हैं। युद्ध में विजयी होने पर भी जयकुमार को हर्ष नहीं होता । वे युद्ध क्षेत्र के घायल व्यक्तियों को चिकित्सा हेतु भेजते हैं । वीरगति को प्राप्त योद्धाओं का अन्तिम संस्कार कराते हैं और अनाथों को सनाथ बना देते हैं । तदनन्दर सभी जिनेन्द्रदेव की पूजन करते हैं । नवम सर्ग अपने जामाता जयकुमार के विजयी होने पर भी अर्ककीर्ति की पराजय से अकम्पन दुःखी हो जाते हैं । वे अर्ककीर्ति की प्रसन्नता हेतु अपनी द्वितीय पुत्री अक्षमाला का विवाह उससे करने का दृढ़ निश्चय करते हैं । वे बन्दी बने अर्ककीर्ति को दण्ड न देकर उसे समझाते हैं तथा अक्षमाला से विवाह करने हेतु निवेदन करते हैं । अर्ककीर्ति को अपने दोष की अनुभूति होती है । वह स्वयं के द्वारा किये गये अनुचित कार्य पर पश्चाताप करता है। तदनन्तर वह विचारता है कि जब मैं आज युवावस्था में ही जयकुमार को जीत नहीं संका तो भविष्य में उसे जीतना असम्भव है । अतएव उनसे मित्रता करना ही उचित होगा ।
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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