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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
श्री भूरामल जी द्वारा रचित संस्कृत काव्य ग्रन्थों की भाषा अत्यन्त प्रौढ़ एवं लक्षणाव्यंजना, गुण, अलंकार आदि काव्य गुणों से विभूषित है । इनमें विभिन्न रसों के माध्यम से जैन धर्म के प्राणभूत अहिंसा, सत्य आदि मूल व्रतों एवं साम्यवाद, अनेकान्त, कर्मवाद आदि आगमिक एवं दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन हुआ है ।' ये ग्रन्थ न केवल साहित्य एवं दर्शन की अपितु संस्कृत वाङ्मय की भी अमूल्य निधि हैं । चारित्र की ओर कदम
इस प्रकार अध्ययन-अध्यापन और अभिनव ग्रन्थों की रचना करते हुए जब भूरामल जी की युवावस्था व्यतीत हुई, तब आपके मन में चारित्र धारण कर आत्म कल्याण करने की अन्तःस्थित भावना बलवती हो उठी । फलस्वरूप बालब्रह्मचारी होते हुए भी सन् १९४७ (विक्रम संवत् २००४) में अजमेर नगर में, आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से व्रत रूप से ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण कर ली। सन् १९४९ (विक्रम संवत् २००६) में आषाढ़ शुक्ला अष्टमी को पैतृक घर पूर्णतया त्याग दिया । इस अवस्था में भी वे निरन्तर ज्ञानाराधन में संलग्न रहे । उन्होंने इसी समय प्रकाशित हुए सिद्धान्त ग्रन्थ धवल, जयधवल एवं महाबन्ध का विधिवत् स्वाध्याय किया।
चारित्र पथ पर अग्रसर होते हुए २५ अप्रेल, अक्षय तृतीया तिथि को सन् १९५५ में ब्रह्मचारी जी ने मन्सूरपुर (मुजफ्फरनगर) (उ.प्र.) में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की । कुछ प्रत्यक्षदर्शियों का कथन है कि ब्रह्मचारी जी ने क्षुल्लक दीक्षा पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा के समक्ष स्वयमेव ग्रहण की । प्राप्त आलेखों के आधार पर उन्होंने आचार्य श्रीवीरसागर जी के समीप क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की और उन्हें श्री ज्ञानभूषण नाम दिया गया ।
आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर होते हुए आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के द्वारा ऐलक के रूप में दीक्षित किये गये।
जब श्री ज्ञानभूषण जी ने अन्तरंग निर्मलता में वृद्धि के फलस्वरूप स्वयं को उच्चतम
१. डॉ. रतनचन्द जैन, आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का जीवन वृतान्त, कर्तव्यपथ प्रदर्शन, पृष्ठ - ५ २. जयोदय पूर्वार्ध, ग्रन्यकर्ता का परिचय, पृष्ठ - २१ ३. बाहुबली सन्देश, पृष्ठ - ३३ ४. दयोदय चम्पू, प्रस्तावना, पृष्ठ - २१ ५. पुष्पांजलि, आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की जीवन धारा, पृष्ठ - ४ ६. वही, पृष्ठ - ४ ७. वही, पृष्ठ - ४