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________________ xiv नवम अध्याय में वर्गों के विन्यास की वक्रता का उन्मीलन किया गया है जिसके अन्तर्गत माधुर्य एवं ओज के व्यंजक वर्गों की योजना तथा अनुप्रासादि शब्दालंकारों के विन्यास से उत्पन्न काव्य-सौन्दर्य के उद्घाटन का प्रयास है । दशम अध्याय में जयोदय के पात्रों का चरित्रविश्लेषण प्रस्तुत है तथा एकादश में जयोदयगत जीवन दर्शन एवं जीवनपद्धति पर दृष्टिपात किया गया है। द्वादश अध्याय में उपसंहार है जिसके अन्तर्गत शोध के निष्कर्षों का आकलन किया गया है । अन्त में परिशिष्ट एक में महाकवि की संस्कृत में विरचित दो अप्रकाशित कृतियों 'वीरशर्माभ्युदय' तथा 'भक्तियों' का परिचय जोड़ा गया है। परिशिष्ट दो में 'जयोदय में राष्ट्रीय चेतना' शीर्षक लेख तथा परिशिष्टि तीन में सन्दर्भग्रन्य सूची है। अपने प्रतिपादनों के समर्थन में मैंने यथास्थान आचार्यों एवं मान्य विद्वानों के कथन उद्धृत किये हैं । विभिन्न उद्धरणों के प्रमाणीकरण हेतु पादटिप्पणियों में सम्बन्धित ग्रन्थ, उसके लेखक एवं पृष्ठादि का सन्दर्भ भी दे दिया है । काव्यभाषा का विश्लेषण सरल कार्य नहीं है । इसके लिए सर्वप्रथम तो सहृदयत्व आवश्यक है । काव्य मर्मज्ञता के बिना काव्यात्मक अभिव्यक्ति के प्रकारों की अर्थात् वैदग्ध्यभनीभणितियों की थाह पा सकना कैसे संभव है ? सहृदयता यधपि स्वाभाविक होती है, तथापि जब काव्यरचना के लिए भी काव्य शास्त्रादि का अवेक्षण आवश्यक है (काव्य प्रकाश १/३) तब उसके मर्म को समझने के लिए तो और भी अधिक आवश्यक है । इसीलिए मैंने दीर्घकाल तक वक्रोक्तिजीवित, औचित्य विचारचर्चा, ध्वन्यालोक, काव्यप्रकाश आदि प्राचीन काव्यशास्त्रों का तथा शैलीविज्ञान या रीतिविज्ञान तथा काव्यभाषा का विवेचन करने वाले विभिन्न आधुनिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया एवं विशेषज्ञों से सम्पर्क कर गुत्थियाँ सुलझाने की चेष्टा की, साथ ही अहर्निश घोर चिन्तन किया । इस प्रकार कुछ सामर्थ्य संचित कर अपने संकल्प को पूर्ण करने का उधम किया है। . शोधकार्य को विशेषज्ञों की अपेक्षा के अनुरूप बनाने में यथाशक्ति कोई प्रयत्न शेष नहीं रखा किन्तु अनुभव के प्रारम्भिक सोपान पर स्थित होने के कारण त्रुटियाँ स्वाभाविक हैं । यदि यह प्रबन्ध विज्ञजनों को किंचित् भी परितोष दे सका तो अपने श्रम को सार्थक मानूंगी । परम आदरणीय डॉ० रतनचन्द्रजी जैन, रीडर, संस्कृत एवं प्राकृत, बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन हेतु उपयुक्त शब्दावली का अभाव अनुभव कर रही हूँ, जिन्होंने अत्यन्त व्यस्त रहते हुए भी मेरा सतत मार्गदर्शन किया, साथ ही शोधविषय से
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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