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________________ २२६ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन के पद पर विराज रहे हैं । पद्यराज प्रसन्न मुखता को प्राप्त हैं अर्थात् देश स्वतन्त्र होने से हर्ष का अनुभव कर रहे हैं । सितरुक्समाज-अंग्रेज यहाँ से जा रहे हैं।' ___हे जन् ! आपकी विनम्रता या शिक्षा गाँधीजी की विनम्रता या शिक्षा का अनुभव कर रही है । आपके गोप्रेम से राजगोपालाचार्य आनन्द का अनुसरण कर रहे हैं । सरोजिनी नायडू प्रसन्न हैं । सिर्फ एक ओर. विभा नामक यवन नेता परकीय भारत को अपना मानते हुए पारस्परिक विरोध के कार्यों में हिन्दुस्थान पाकिस्तान के विभाजन का अनुष्ठान कर रहा निम्न पद्यों में महाकवि ने राष्ट्र के लिए मंगल कामना की है जिससे सत्य और अहिंसा के बल पर प्राप्त स्वतन्त्रता चिरस्थायी बनी रहे - गान्धीरुषः प्रहर एत्य तकमाय, सत्सूत नेहरुचयो बृहदुत्सवाय । राजेन्द्र-राष्ट्र - परिरक्षणकृत्तवाय - मत्राभ्युदेतु सहजेन हि सम्प्रदायः ॥ मधु- स्वराज्य परिणामसमर्षिका ते, सम्भावितकमहिता लसतु प्रभाते । सूत्रप्रचालनतयोचित-दण्डनीतिः, सम्यग्महोदधिषणासुघटप्रणीतिः॥ - गांधीजी के रोष को दूर करनेवाला नेहरू परिवार सज्जनों में महान् उत्सव के लिए तत्पर है और डॉ. राजेन्द्रप्रसाद आदि राष्ट्र नेताओं का परिकर अभ्युदय को प्राप्त हो। हे महोद ! हे तेज/प्रताप को देनेवाले ! आपकी बुद्धि ऐसी हो जो मनोहर गणतन्त्र की सफलता का समर्थन करनेवाली हो, जो असेम्बली में अच्छी तरह विचारित कार्यप्रणाली से सहित हो, जो राज्यतन्त्र के संचालन की दृष्टि से उचित दण्डनीति से सहित हो और सुघट प्रतीति/सुसंगत प्रतीति से युक्त एवं व्यवहार कार्य करने वाली हो ।' . जयोदय के अन्तिम सर्ग के अन्त में कामना पञ्चक श्लोकों में भी महाकवि की राष्ट्र के प्रति मंगल भावना अभिव्यक्ति हुई है . १,२,श्लेषालंकार से दो अर्थ निकलते हैं। यहाँ मात्र एक अपेक्षित अर्थ दिया गया है। अर्थ के लिए टीका ४. दृष्टव्य है। ३. जयोदय, १८/८४, ८२
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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