________________
२१४
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन पर लोगों को अन्न-वस्त्रादि देता रहे । क्योंकि मले पुरुषों का वैभव परोपकार के लिए ही हुआ करता है।' गृहस्थ को अवसर के अनुसार समान-धर्मा गृहस्थ को उसके लिए आवश्यक
और गृहस्थोचित कार्यों में सुविधा उत्पन्न करने वाले कन्या, सुवर्ण, कम्बल आदि धन-सम्पत्ति भी देना चाहिए क्योंकि संसार में जीवों का जीवन-निर्वाह परस्पर के सहयोग से ही होता
__ यहाँ तो सुवर्ण का ही दान देना चाहिए, तभी पुण्य होगा, इस तरह की विचारधारा लेकर दस प्रकार के दान जो लोक में प्रसिद्ध हैं, संसार से पार होना चाहनेवाले मनुष्य को उनसे दूर ही रहना चाहिए । क्योंकि पुण्य का कारण तो योग्यता ही होती है। जो सन्मार्ग की हँसी उड़ाता और उससे द्वेष करता है, जो उद्धत स्वभाव और कृतघ्न है; ऐसे पुरुष को कभी कुछ भी नहीं देना चाहिए । देखो, अपने प्राणों का नाश करने वाला सांप को कौन समझदार स्वयं जा कर दूध पिलायेगा ? यहाँ जो वस्तु अनुपयोगी है, प्रत्युत हानिकारक है, वहाँ उसे देना भी पापकारी होता है। क्योंकि जिसकी जठराग्नि प्रज्वलित है, उसी को विचारपूर्वक दिया गया घी ठीक होता है । रोगी के लिये दिया वही घृत हानिकर ही होता है। अपने कुल का सुख से निर्वाह होता रहे और स्वयं इस संसार में निराकुल हो कर परमात्मा की आराधना कर सके, यह ध्यान में रखकर मनुष्य जीवन भर सुयोग्य पुरुष के लिए आवश्यक वस्तु देता रहे । क्योंकि सत्पुरुषों की चेष्टायें तो अपने और पराये दोनों के कल्याण के लिए ही होती हैं । इसके अतिरिक्त गृहस्थ को चाहिए कि अपना तो यश हो
और पूर्वजों की स्मृति बनी रहे तथा सर्व साधारण में सद्भावना की जागृति हो, इसलिए जिनमन्दिर, धर्मशाला आदि परोपकार के अनेक साधन भी जुटाता रहे, जिससे सन्मार्ग की प्रतिष्ठा बनी रहे । इस प्रकार परमार्थ की श्रद्धा रखने वाले और शील, संयम से युक्त तथा भली आजीविका वाले मनुष्य के लिए आचार्यों ने यह देव-पूजन और दानरूप जो दो काम बताये हैं, वे नित्य ही करने चाहिए । फिर पर्व आदि विशेष अवसरों पर तो इन दोनों कार्यों का विशेष रूप से सम्पादन करना चाहिए । निरामिष आहार
दान और पूजा के अनन्तर गृहस्थ को चाहिए कि वह मनुष्योचित (जिसका कि
१. जयोदय, २/९९ २. वही, २/१०० ३. वही, २/१०१ ४. वही, २/१०२
५. जयोदय, २/१०३ ६. वही, २/१०४ ७. वही, २/१०५ ८. वही, २/१०६.