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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन १९१ व्यंग्य की प्रभावशाली निष्पत्ति के रूप में अनुप्रास की सफलता देखिए : , - जेवर चाहिए, जरदा चाहिए, जरी चाहिए, कहाँ से आना ? (रंगभूमि, ४१०) इन सभी स्थलों में ऐसे शब्दों का चयन हुआ है जिनमें सदृश व्यंजनों का प्रयोग मिलता है । सन्दर्भ के प्रभाव से ये व्यंजन अभिव्यंजक हो उठते हैं तथा शब्दार्थ और वाक्यार्थ के प्रभाव को घनीभूत कर देते हैं । साहित्यिक संरचना के सब घंटकों में इनका अवकाश है, तथापि उपर्युक्त उदाहरण कथावर्णन तथा चरित्रचित्रण के सन्दर्भ में आये हैं।' संस्कृत साहित्य में भी वर्णविन्यासवक्रता के ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनसे उपर्युक्त प्रयोजनों की सिद्धि होती है । यथा - सुजलां सुफलां मलयजशीतलां सस्य श्यामलां मातरम् वन्दे मातरम् । यहाँ "स" की आवृत्ति भारत भूमि की समृद्धि और सरसता के भाव को घनीभूत कर देती है। सम्मोहयन्ति मदयन्ति बिडम्बयन्ति, निर्भत्सयन्ति रमयन्ति विषदयन्ति। .. एताः प्रविश्य सदयं हृदयं नराणां , किं नाम वामनयना न समाचरन्ति । यहाँ "न्ति" के बहुशः प्रयोग से श्रुतिमाधुर्य की उत्पत्ति के साथ वामनयनाओं के “ शक्तिबाहुल्य एवं चरित वैविध्य का भाव' सघन हो गया है। भक्तिः कातरतां क्षमा समयतां पुज्यस्तुतिर्दीनतां, पर्य दारुणतां मतिः कुटिलतां वियाबलं क्षोभताम् । ध्यानं वञ्चकतां तपः कुदृकतां शीलव्रतं षण्ठतां, पैशुन्कातिनां गिरां किमिव वा नायाति दोषाताम् ॥ यहाँ भी "तां" के पुनः पुनः प्रयोग द्वारा पिशुनों की गुणों को अवगुण रूप से ग्रहण करने की प्रवृत्ति उत्कर्ष को छूने लगती है । लयात्मक माधुर्य भी उत्पन्न होता है। १. शैलीविज्ञान और प्रेमचन्द की भाषा, पृष्ठ २६-२७ २. भर्तृहरि, शृंगारशतक ३. मुनिमत मीमांसा
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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