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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन क्षणरुचिः कमला प्रतिदिङ्मुखं सुरधनुश्वलमेन्द्रिधिकं सुखम् । विभव एष च सुप्तविकल्पबदहह दृश्यमदोऽखिलमाम् ॥ २५/३ ॥ लवणिमाजदलस्वजलस्थितिस्तरुणिमायमुषोऽरुणिमान्वितिः। लसति जीवनमजलिजीवनमिह देषात्ववर्षि न सुपीजनः ॥ २५/५ ॥ अपि तु तृप्तिमियाच्छुचिरिन्धनैरव शतैः सरितामपि सागरः । न पुनरेष पुमान् विषयाशयैरिति समञ्चति मोहमहागरः ॥ २५/१७ ॥ गणपतीतिवणो विपदां भरं न विषयी विषयेषितया नरः । असुहतिष्वपि दीपशिखास्वरं शलभ आनिपतत्यपसम्बरम् ॥ २५/२५ ॥(मूल प्रति) परिजनाः कलपादपके क्षणमपिवसन्ति च सन्ति च पक्षिणः । फलमवाप्य किमप्यय ते रयाजगति पान्ति महीन्द्र ! यदृच्छया ॥ २५/३० ॥ अपि परेतरथान्तमवाङ्गना पितृवनान्तममी परिवारिणः ।
पुरुष एष हि दुर्गतिगहरे स्वकृतदुष्कृतमेष्यति निपुणः ॥ २५/४८ ॥
- संसार की सम्पत्तियाँ बिजली के समान क्षणस्थायी हैं, चंचल हैं । इन्द्रिय सुख इन्द्रधनुष के समान क्षणस्थायी हैं । वैभव, पुत्र-पौत्रादि का समागम स्वप्न के समान क्षणभंगुर है । जगत् की प्रत्येक वस्तु अस्थायी है । युवावस्था कमलपत्र पर स्थित जलबिन्दु के समान क्षणस्थायी है। युवावस्था प्रातः एवं सन्ध्या काल की लालिमा के समान क्षणिक है। प्राणी की आयु मनुष्य की अंजलि में स्थित जलवत् प्रतिक्षण क्षीण होती है । प्राणियों की विषयेच्छा समुद्र की वड़वाग्नि के समान है । जैसे समुद्र की वड़वाग्नि सैकड़ों नदियों के जल से तृप्त नहीं होती, वैसे ही प्राणियों की विषयेच्छा अपरिमित विषयभोगों से भी तृप्त नहीं होती । संसार के प्राणी विषयों में आसक्त होते हैं । वे विषयाकांक्षा के मार्ग में आने वाली आपत्तियों की उसी प्रकार चिन्ता नहीं करते, जिस प्रकार पतंगे दीपशिखा पर मंडराते समय मृत्यु की चिन्ता नहीं करते । जगत् में कुटुम्ब एक वृक्ष के समान है । जैसे वृक्ष पर पक्षीगण आते हैं, कुछ समय साथ रहते हैं फिर अपनी इच्छानुसार गन्तव्य स्थान पर चले जाते हैं, उसी प्रकार परिवार में पुत्र-पौत्रादि जन्म लेते हैं, कुछ समय साथ रहते हैं और आयु पूर्ण होने पर नई गति में चले जाते हैं । मनुष्य की मृत्यु होने पर स्त्री केवल घर के द्वार तक साथ जाती है और परिवारजन श्मसान तक । जीव अपने अर्जित पाप-कर्म के कारण अकेला ही दुर्गति को प्राप्त होता है।