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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
___"यहां राम आश्रय है, सीता आलम्बन है, वासन्ती वैभव से समृद्ध जनकवाटिका उद्दीपर है, राम के पुलक आदि अनुभाव हैं, रति स्थायी है और हर्ष, वितर्क, मति आदि संचारी भाव हैं।"
___ उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार प्रस्तुत प्रसंग की रसास्वादन प्रक्रिया में साधारणीकरण हो जाता है । आश्रय राम के साधारणीकरण का अर्थ है कि वे राम न रह कर रति मुग्ध सामान्य पुरुष बन जाते हैं -- उनके देश और काल तथा उनसे अनुबद्ध वैशिष्ट्य तिरोभूत हो जाते हैं और नारी के सौन्दर्य से अभिभूत सामान्य किशोर मन उभर कर सामने आ जाता है। आलम्बन सीता के साधारणीकरण का आशय भी बहुत कुछ ऐसा ही है । अर्थात् उनका भी देश, कालावच्छिन्न वैशिष्ट्य समाप्त हो जाता है और सामान्य रूप शेष रह जाता है । अनुभव के साधारणीकरण से अभिप्राय यह है कि राम की चेष्टायें राम से सम्बद्ध न रहकर सामान्य मुग्ध पुरुष की चेष्टायें बन जाती हैं । इसी प्रकार रत्यादि स्थायिभाव और हर्ष, वितर्क आदि संचारी भाव भी एक ओर राम, सीता से और दूसरी ओर सहृदय तथा उसके आलम्बन से सम्बद्ध नहीं रह जाते, वे वैयक्तिक राग-द्वेष से मुक्त हो जाते हैं। उपर्युक्त प्रसंग में जो रति स्थायि भाव है वह न राम की सीता के प्रति रति है, न सहृदय की सीता के प्रति और न सहृदय की अपने प्रणयपात्र के प्रति । यह तो निर्मुक्त रतिभाव है जिसमें स्व-पर की चेतना निश्शेष हो चुकी है । मूलतः यह सहृदय का ही स्थायी भाव है, परन्तु साधारणीकरण के कारण व्यक्ति चेतना से निर्मुक्त हो गया है । इस प्रकार रस के अवयवों में जो मूर्त है वे विशेष से सामान्य बन जाते हैं और जो अमूर्तभाव रूप हैं वे व्यक्ति संसर्गों से मुक्त हो जाते है- विभावों की देशकाल के बन्धन से मुक्ति होती है और भावों की स्व-पर की चेतना से।' रसोत्पत्ति सहदय सामाजिक को ही इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए आलंकारिक धर्मदत्त कहते हैं :- .
सपासनानां सम्मान रसस्यास्वादनं भवेत् । .... निपसिनास्तु सान्तः काकपाश्मसविमाः॥ - रस का स्वाद उन्हीं सामाजिकों को होता है जिन के हृदय में रत्यादि वासनाएँ । विद्यमान हैं। जिनमें वासना ही नहीं, उन्हें रसास्वाद कैसे संभव है ? ऐसे लोग तो रंगशाला के स्तम्भ, दीवार और पाषाण के समान है। १. रस सिद्धान्त, पृष्ठ १९८-१९९ २. साहित्यदर्पण, ३/८ से उद्धृत