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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन आलम्बन और आश्रय
शकुन्तला को देखकर यदि दुष्यन्त का रतिभाव जागरित होता है तो शकुन्तला उस रति का आलम्बन है और दुष्यन्त आश्रय । हास्य तथा वीभत्स रसों के प्रकरण में जहाँ आश्रय का वर्णन न हो, वहाँ आक्षेप द्वारा उसकी उपस्थिति माननी चाहिये अथवा सामाजिक ही लौकिक हास एवं जुगुप्सा तथा अलौकिक रसास्वादन दोनों का आश्रय हो सकता है।'
लोक जीवन में जो ज्योत्स्ना, उद्यान, नदी तीर, शीतल पवन, प्रेमी-प्रेमिका के हाव-भाव, शारीरिक सौन्दर्य आदि रत्यादि भाव को उद्दीपन करते हैं, वे काव्य नाट्य में वर्णित होने पर उद्दीपन विभाव कहलाते हैं । सामाजिक के रत्यादि को उबुद्ध करने में इनका भी योगदान होता है। अनुभाव साहित्य दर्पणकार ने अनुभाव का लक्षण इस प्रकार बतलाया है :--
"उबुद्ध कारणैः स्वैः स्वैर्बहिभावं प्रकाशयन् ।
लोके यः कार्यरूपः सोऽनुभावः काव्यनाट्ययोः॥"२ - लोक में यथायोग्य कारणों से स्त्री-पुरुषों के हृदय में उबुद्ध रत्यादि भावों को बाहर प्रकाशित करने वाले जो शारीरिक व्यापार होते हैं, वे लोक में रत्यादि भावों के कार्य तथा काव्यनाट्य में अनुभाव कहे जाते हैं । काव्य-नाट्य में इनकी अनुभाव संज्ञा इसलिये है कि ये विभावों द्वारा रसास्वाद रूप में अंकुरित किये गये सामाजिक के रत्यादि स्थायिभाव को रस रूप में परिणत करने का अनुभवन व्यापार करते हैं।'
अनुभावों की चार श्रेणियाँ हैं :-- (१) चित्तारम्भक, जैसे - हाव-भाव आदि (२) गात्रारम्भक, जैसे - लीला, विलास, विच्छित्ति आदि
१. ननु क्रोधोत्साहभयशोकविस्मयनिर्वेदेषु प्रागुदाहृतेषु यथालम्बनाश्रययोः सम्प्रत्ययः न तथा हासे जुगुप्सायां · च । तत्रालम्बनस्येव प्रतीतेः । पद्यश्रोतुश्च रसास्वादाधिकरणत्वेन लौकिकहासजुगुप्सा- श्रयत्वानुपपत्तेः । इति चेत् सत्यम् । तदाश्रयस्य दृष्टपुरुषविशेषस्य तत्राक्षेप्यत्वात् । तदनाक्षेपे तु श्रोतुः स्वीयकान्तावर्णनपधादिव रसोद्बोधे बाधकामावात्।
- रसगंगाधर, प्रथम भाग, पृष्ठ ११२-११३ २. साहित्य दर्पण, ३/१३२ ३. "अनुभावनमेवम्भूतस्य रत्यादेः समनन्तरमेव रसादिरूपतया भावनम् ।" साहित्यदर्पण, वृत्ति ३/१३२