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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
१३९ सुलोचना को देखा । रमणी सुलोचना ने अपने जीवन के आधारभूत अत्यन्त तेजस्वी जयकुमार को देखा । भविष्य में होने वाले पाणिग्रहण संस्कार के प्रारम्भ में उनका जो हावभाव भरा उपक्रम हो, वह उत्तम कवियों की लेखनी से प्रसूत होकर अति सुन्दर बने ।
यहाँ “कमलमुखी' विशेषण अपनी बिम्बात्मकता के द्वारा सुलोचना के प्रसन्न एवं सुकोमल मुख का चित्र नेत्रों के समक्ष उपस्थित कर देता है । इसी प्रकार --
काष्ठागतपरसार्य विभूतिमान तेजसा दहत्यवशः।
तेनास्याशयरूपं स्वतो भवति भस्मशुभ्रयशः ॥ ६/२९॥ -- यह कामरूप देश का राजा निरंकुश वैभवशाली है । इसने तेज से सर्व दिशाओं में स्थित शत्रुओं को उसी प्रकार नष्ट कर दिया है जैसे अग्नि अपनी दाहकता से काष्ठ को जला देती है । इस कारण इसका भस्म के समान शुभ्र यश स्वतः चारों ओर फैल रहा है ।
इस पद्य में अमूर्त यश के लिए मूर्त "शुभ्र" विशेषण का प्रयोग हुआ है, जो राजा के निर्मल यश को व्यंजित करने वाले बिम्ब का जनक है । क्रियाश्रित बिम्ब
क्रिया का लाक्षणिक प्रयोग करने पर बिम्ब निर्मित होता है । जयोदय में क्रियाश्रित बिम्ब के अनेक उदाहरण मिलते हैं । एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं --
दृष्टिराशु पतिता विमलायां नव्यभव्यरजनीशकलायाम् ।।
कौमुदादरपदातिशयायां प्रेक्षिणी ननु नृणामुदितायाम् ॥ ५/६७ -- सुलोचना उदित हुई अभिनव चन्द्रकला के समान सुन्दर और आनन्दोत्पादक थी । उस प्रसन्नचित्त राजकुमारी पर लोगों की दृष्टि तुरन्त जा पड़ी।
यहां “पतिता" क्रिया के द्वारा निर्मित चित्र एकमात्र सुलोचना पर ही लोगों की दृष्टि केन्द्रित हो जाने के भाव को प्रभावशाली ढंग से व्यंजित करता है ।
_इस प्रकार महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी ने अपने महाकाव्य में अमूर्त भावों की अभिव्यक्ति के लिए चित्रात्मक भाषा या बिम्ब विधान का आश्रय भी लिया है और इसके द्वारा वस्तु के सूक्ष्म स्वरूप तथा मानवीय मनोभावों एवं मनोदशाओं के वैशिष्ट्य को अत्यन्त प्रभावशाली रीति से अनुभूतिगम्य बनाया है।
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