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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन के प्रकाशन का जब अवसर आता है तब उनके गुणात्मक भेद का पता चल जाता है । लाक्षणिक प्रयोगाश्रित बिम्ब
"हस्तापचेयं यशः" (हाथ से बटोरने योग्य यश) यहाँ अमूर्त यश के साथ मूर्त पदार्थ के धर्म "अपचेयम्' का प्रयोग लाक्षणिक प्रयोग है । इस क्रिया मे जो बिम्ब निर्मित होता है उससे यश की प्रचुरता का अनुभव शीघ्रता से होता है ।
"निष्कारणं निकारकणिकापि मनस्विनां मानसमायासति" [बिना किसी कारण अपमान का कण भी स्वाभिमानियों के हृदय को पीड़ित करता है ।]
यहाँ अमूर्त उपमान के साथ मूर्त पदार्थ के अल्पता के वाचक “कण' शब्द का प्रयोग हुआ है जो लाक्षणिक है । इससे निर्मित अल्पता के बिम्ब द्वारा अपमान के अत्यल्प अंश की सुस्पष्टतया प्रतीति हो जाती है ।
__"किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्" इस उक्ति में जिह्वा इन्द्रिय के विषयभूत माधुर्य के वाचक मधुर शब्द का प्रयोग लाक्षणिक है क्योंकि वह किसी खाद्य पदार्थ का विशेषण न होकर आकृतियों का विशेषण है | इस जिह्वा इन्द्रिय की अनुभूति के विषयभूत मधुर शब्द से माधुर्य का जो बिम्ब मन में निर्मित होता है, उससे आकृतियों की माधुर्यवत् प्रियता या आह्लादकता बड़ी सहजता से अनुभूतिगम्य हो जाती है ।
"कालविपुष" (समय की बूंद) यहाँ “विपुष्" लाक्षणिक शब्द है और मूर्त पदार्थ जल की अल्पता का वाचक है । इससे निर्मित अल्पता के बिम्ब द्वारा समय के अत्यल्प अंश की सरलतया प्रतीति होती है ।
"गअणं च मत्तमेहं' (गगन में मत्तमेघ हैं) यहाँ मनुष्य के विशेषण भूत “मत्त" शब्द से निर्मित मेघों के अनियन्त्रित रूप से निष्प्रयोज़न इधर-उधर भटकने की प्रतीति कराता
बिम्ब के आश्रयभूत भाषिक अवयव
बिम्ब का निर्माण कहीं पूरे वाक्य से ही होता है, कहीं केवल संज्ञा-विशेषण, क्रिया या क्रिया-विशेषण मात्र से हो जाता है । सांगरूपक, उत्प्रेक्षा, निदर्शना, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा,
१. ध्वन्यालोक, २/१, पृष्ठ १८१